हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में


हमें अपने पूर्वजों के धर्म, संस्कृति और इतिहास को जानना चाहिये। हिन्दू धर्म सभी धर्मों में सरल है किन्तु इस का वास्तविक रूप जानने वालों की संख्या बहुत कम है। हिन्दू धर्म के बारे में अधिकतर लोगों की जानकारी उन नेत्रहीनों के बराबर है जो हाथी के किसी ऐक अंग को छू कर ही हाथी के बारे में विवादस्पद विचार व्यक्त कर के आपस में लड़ने लगे थे।

विदेशी शासकों के राज्यकीय संरक्षण से वंचित हो जाने के कारण हिन्दू धर्म भारत में ही अपंग एवं त्रिसकरित हो गया था। हिन्दू धर्म में व्यक्तिगत विचारों, धार्मिक ग्रंथों तथा उन की मीमांसाओं की भरमार है। इस कारण एक ओर तो हिन्दू धर्म तर्क संगत विचारों के कारण सुदृढ होता रहा है तो दूसरी ओर विचारों की भरमार तथा विषमताओं के कारण भ्रम भी धर्म के साथ जुड़ते रहे हैं।

आज का युवा वर्ग हिन्दू धर्म को केवल उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो साधारणत्या विवाह या मरणोपरांत करवाये जाते हैं। विदेशी पर्यटक भिखारियों, नशाग्रस्त, बिन्दास साधुओं की तसवीरें विदेशी पत्रिकाओं में छाप कर हिन्दू धर्म की विशाल छवि को धूमिल कर रहे हैं ताकि वह युवाओं को विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। लार्ड मैकाले और भारत सरकार की धर्म निर्पेक्षता की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे हुये हैं। उन के विचारों में जो कुछ भी हिन्दू धर्म या हिन्दू संस्कृति से जुड़ा हुआ है वह अन्धविशवास, दकियानूसी, जहालत तथा हिन्दू फंडामेंटलिज़म है। वह यही साबित करने में जुटे रहते हैं कि भारत केवल सपेरों, लुटेरों अशिक्षतों तथा भुखमरों का ही देश है।

हिन्दू युवा वर्ग कई कारणों से निजि भविष्य को सुरक्षित करने में ही जुटा रहता है तथा अपने पूर्वजों के धर्म का बचाव करने में लगभग असमर्थ है। युवाओं ने धर्म निर्पेक्षता की आड़ में पलायनवाद तथा नासतिक्ता का आश्रय ढूंड लिया है जिस के फलस्वरूप राजनैतिक उद्देष से प्रेरित विदेशियों को हिन्दू धर्म को बदनाम कर के भारत को अहिन्दू देश बनाने का बहाना मिल गया है। यदि ऐसा ही चलता गया तो शीघ्र ही हिन्दू अपने ही देश में बेघर हो जायें गे और बंजारों की तरह विदेशों में त्रिसकरित होते फिरें गे।

इस अंधकारमय वातावरण में आशा की किरण भी अभी है। इन्टरनेट पर बहुत सी वेबसाईटस हिन्दू धर्म के बारे में मौलिक जानकारी देनें में सक्षम हैं। विदेशों में रहने वाले हिन्दू जागृत हो रहे हैं। वह अपने धर्म और संस्कृति से पुनः जुड़ कर सुसंस्कृत, सुशिक्षित, समृध तथा सफल हो रहे हैं – उसे त्याग कर नहीं।

हिन्दू महा सागर लेख श्रंखला पहले अंग्रेजी में Splashes from Hindu Mahasagar के शीर्षक से लिखी गयी थी। विदेशों में लोकप्रियता प्राप्त करने के पश्चात इस का हिन्दी अनुवाद भी दिल्ली से सप्ताहवार छपता रहा है और अब फेसबुक के माध्यम से ऐक अलग ब्लाग पर प्रस्तुत किया जा रहा है। इस लेख श्रंखला का अभिप्राय हिन्दू धर्म का प्रचार या हिन्दू इतिहास को दोहराना नहीं है अपितु हिन्दू धर्म के महा सागर की विशालता की कुछ झलकियों को आज के संदर्भ में दर्शाना मात्र है ताकि हम अपने पूर्वजों के कृत्यों को समर्ण कर के गर्व से कह सकें कि हम हिन्दू है। अंग्रेजी में यह लेख माला apnisoch.worldpress.com बलाग पर प्रस्तुत है।

72 लेखों की श्रंखला में चर्चित विषय सामान्य हैं किन्तु बहुत कुछ हिन्दू महा सागर के तल में छिपा है – उस को पाने के लिये सागर की गहराई में उतरना हो गा। समस्त सागर को जानना भी कठिन है। अतः जिज्ञासु अवश्य ही गहराई में उतरें गे तो कुछ केवल महासागर की विशालता को ही आनन्द से निहारें गे और कुछ बिन्दास या विरोधी केवल रेत उछालते हुये चले भी जायें गे।

आप के स्कारात्मिक सुझावों तथा आलोचनाओं का स्वागत है जिन का कमेन्ट्स के माध्यम से उत्तर देने की भरपूर यत्न किया जाये गा। अगर आप को तर्क संगत लगे तो इसे अपने मित्रों – और युवाओं के साथ बाँटें। इस से हिन्दू धर्म और समाज को संगठन शक्ति मिलेगी।

मुझे इस बात का संतोष अवश्य है कि हिन्दू महासागर पर लागइन करने वालों की संख्या ऐक लाख से ऊपर हो चुकी है और आज देश में ऐक राष्ट्रीय सरकार है जिस पर उम्मीद लगाई जा सकती है कि वह हिन्दू मर्यादाओं की रक्षा करे गी। 03.04.2015

चाँद शर्मा


(पढने के लिये रेखांकित शीर्षक पर कल्कि करें)

हिन्दू महा सागर – ऐक परिचय

प्रथम प्रकरण – विचारधारा

(सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। विभिन्नता केवल शरीरों में ही है।यही हिन्दू धर्म की मुख्य विचारघारा है।    संसार का प्रथम मानव धर्म प्राकृतिक नियमों पर आधारित था जो कालान्तर आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ।)           

  1. सृष्टि और सृष्टिकर्ता
  2. स्नातन धर्म के जन्मदाता
  3. सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध
  4. धर्म का विकास और महत्व
  5. स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता 

दूसरा प्रकरण – देवी देवता

(हिन्दू ऐक ही ईश्वर को निराकार मानते हुये उसे कई रूपों में साकार भी मानते हैं तथा जन साधारण को व्याख्या करने के लिये चिन्हों का प्रयोग भी करते हैं जो ईश्वरीय शक्ति के वैज्ञियानिक रूप को दर्शाते हैं। संसार की गति विधियों का जो विधान प्राचीन ऋषियों ने कल्पना तथा अनुभूतित तथ्यों के आधार पर किया उसी के अनुसार आज भी विश्व की सरकारें चलती हैं। सृष्टि के विधान में जब भी कोई कर्तव्य विमुख होता है और अधर्म बढने लगता है तो सृष्टिकर्ता सृष्टि के संचालन धर्म की पुनः स्थापना कर देते हैं।)

  1. निराकार की साकार प्रस्तुति 
  2. प्राकृति का व्यक्तिकरण
  3. संसार का प्रशासनिक विधान
  4. विष्णु के दस अवतार

तीसरा प्रकरण – हिन्दू साहित्य

तीसरा प्रकरण – मानव ज्ञान के मौलिक ग्रंथ

(कई धर्मों में आस्थाओं पर टिप्पणी करना अपराध माना जाता है किन्तु हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति वैचारिक रूप से स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ अनिवार्य हो। हिन्दू ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है लेकिन हिन्दू चाहे तो की किसी ऐक पुस्तक को, अथवा सभी को, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को विश्व गुरू माना जाता था। वेद, उपनिष्द, दर्शनशास्त्र, रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं किन्तु धर्म निर्पेक्षता के ढोंग के कारण भारत सरकार ने ही उन्हें केवल हिन्दू साहित्य समझ कर शिक्षा के क्षेत्रों में अछूता छोड़ दिया है।)                       

  1. हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ
  2. उपनिष्द – वेदों की व्याख्या
  3. दर्शनशास्त्र – तर्क विज्ञान
  4. समाजिक आधार – मनु समृति
  5. रामायण – प्रथम महाकाव्य
  6. विशाल महाभारत
  7. मानव इतिहास – पुराण
  8. पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म

चौथा प्रकरण – व्यक्तिगत जीवन

(जीवन में आदर्शों की आधारशिला यम नियम हैं। जिन के अभ्यास से गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं। सभी जीव काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की भावनाओं से प्रेरित हो कर कर्म करते हैं। आवेश की प्रधानताओं के अनुसार ही व्यक्तित्व बनता है। आवेशों को साधना से नियन्त्रित और संतुलित किया जा सकता है। जीवन में आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं जिन में से धर्म अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। जीवन को चार प्राकृतिक भागों में विभाजित किया है, जिन्हेंब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम कहा जाता है। आजकल के जीवन में तनाव का मुख्य कारण आश्रम जीवन पद्धति का लुप्त होना है।)

  1. आदर्श जीवन का निर्माण
  2. मानव जीवन के लक्ष्य 
  3. व्यक्तित्व विकास
  4. जीवन के चरण

पाँचवां प्रकरण – हिन्दू समाज

(सामाजिक वर्गीकरण आज भी सभी देशों और जातियों में है जो नस्ल, रंग-भेद, या विजेता और पराजित  अवस्था के कारण है। वहाँ निचले वर्ण से ऊँचे वर्ण में प्रवेश लगभग असम्भव है, किन्तु हिन्दू समाज में मनु के वर्गीकरण का आधार रुचि, निपुणता, परस्पर-निर्भरता, श्रम-विभाजन, श्रमसम्मान तथासमाज के लिये व्यक्ति का योग्दान था। जन्म से सभी निम्न वर्ण माने जाते हैं किन्तु सभी अपने पुरुषार्थ से योग्यता और उच्च वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं। यह दुर्भाग्य है कि आजकल सरकारी विभाग केवल जन्म-जाति के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र, आरक्षण और विशेष सुविधायें राजनेताओं के स्वार्थ के  कारण प्रदान कर देते हैं। अन्य देशों और धर्मों की अपेक्षा हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्राप्त रही है। स्त्रियों के लिये कीर्तिमान के तौर पर ऐक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है ताकि स्त्री पुरुष ऐक दूसरे के प्रतिदून्दी बनने के बजाय सहयोगी बने। धर्मान्तरण कराने के लिये हिन्दू विरोधी गुट छुआ-छूत, सती प्रथा तथा कन्याओं के वध का दुष्प्रचार करते रहै हैं जबकि हिन्दू समाज में सामाजिक शिष्टाचार का महत्व सभ्यता के आरम्भ से ही है।)

  1. हिन्दू समाज का गठन
  2. वर्ण व्यवस्था का औचित्य
  3. हिन्दू समाज और महिलायें
  4. सती तथा भ्रूण हत्या
  5. हमारी सामाजिक परम्परायें

छठा प्रकरण – प्राकृतिक जीवन

(पूजा पाठ करना प्रत्येक व्यक्ति का निजि क्षेत्र है। मन्दिरों का महत्व विद्यालयों जैसा है। क्रियाओं को निर्धारित प्रणाली से करना ही रीति रिवाज कहलाता है जो घटना के घटित होने के प्रमाण स्वरूप समाज में प्रसारण के लिये किये जाते हैं। यह समय और समाज की ज़रूरतों के अनुसार बदलते रहते हैं। पर्व नीरस जीवन में परिवर्तन तथा खुशी का रंग भरने के निमित हैं। हिन्दू पर्व भारत की ऋतुओं, पर्यावरण, स्थलों, देश के महा पुरुषों तथा देश में ही घटित घटनाओं के साथ जुड़े हैं। हमें विदेशों से पर्व उधार लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। साधना का ऐक महत्व पूर्ण अंग वृत लेना है। साधनायें आवेशों, विकारों, मनोभावों तथा इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने में सहायक है।)

  1. पूजा और रीति रिवाज
  2. पर्यावरण सम्बन्धित पर्व 
  3. राष्ट्र नायकों के पर्व
  4. वृत और स्वस्थ जीवन 

सातवां प्रकरण – हिन्दू गौरव

(वैज्ञानिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैंक्योंकि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व भारत में उच्च शिक्षा के लिये विश्विद्यालय थे जहाँ से वैज्ञायानिक विचारों का उदय हुआ लेकिन आज से केवल आठ सौ वर्ष पूर्व तक विश्व की अन्य मानव जातियाँ डार्क ऐज में ही जीवन व्यतीत कर रही थीं। ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों पर मौलिक शब्दावली और ग्रंथ भारत में लिखे गये थे। उदाहरण स्वरूप कुछ ही विषयों की जानकारी संक्षिप्त में यहाँ दी गयी है।)

  1. उच्च शिक्षा के संस्थान
  2. विज्ञान-आस्था का मिश्रण
  3. सृष्टि का काल चक्र
  4. गणित क्षेत्र में योगदान
  5. भारत का भौतिक ज्ञान
  6. तकनीकी उपलब्द्धियाँ
  7. ज्योतिष विज्ञान
  8. चिकित्सा क्षेत्र के जनक
  9. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति

आठवां प्रकरण –कला-संस्कृति

(भाषा, भोजन, भेष, भवन और भजन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। पाश्चात्य देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और केवल मांसाहार कर के ही पेट भरते थे तब भी भारत को ऐक अत्यन्त विकसित और समृद्ध देश के रूप में जाना जाता था। संस्कृत आज भी कम्पयूटरों के उपयोग के लिय सर्वोत्तम भाषा है और इस का साहित्य सर्वाधिक मौलिक, समृद्ध और सम्पन्न है। साहित्य सर्जन की सभी शैलियों का विकास भारत में ही हुआ था। भारतीय जीवन में अध्यात्मिक्ता के साथ साथ मर्यादित विलासता का भी समावेश रहा है। भारतीय खेलों के लिय किसी विश्ष्ट तथा महंगे साजोसामान की जरूरत नहीं पडती। विश्व में लगर प्रबन्ध का प्राचीनतम प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से ही मिले हैं। भारतीय संगीत तुलना में आज भी पाश्चात्य संगीत से अधिक विस्तरित, वैज्ञानिक, कलात्मिक और प्रगतिशील है।)
 
  1. देव-वाणी संस्कृत भाषा
  2. विश्व को साहित्यिक देन
  3. समृद्ध भारतीय जन जीवन
  4. खेल कूद के प्रावधान 
  5. भारत की वास्तु कला
  6. हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति

नौवां प्रकरण – सैन्य क्षमता

(प्रजातान्त्रिक प्रतिनिधि सरकार की परिकल्पना को भारतवासियों ने रोम तथा इंग्लैंड से कई हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप दे दिया था। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे। भारत को ऐक समृद्ध सैनिक महाशक्ति माना जाता था। युद्ध-भूमि पर प्राण त्याग कर वीरगति पाना श्रेष्ठतम, और कायरता को अधोगति समझा जाता था। प्रथम शताब्दि में युद्ध कला, युद्ध-नियम तथा शस्त्राभ्यिास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा विमानों की संचलन प्रणाली सम्बन्धी निर्देश भी उपलब्द्ध हैं जिन में प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मिक जानकारी उपलब्द्ध है।)

  1. राजनीति शास्त्र का उदय
  2. राष्ट्वाद की पहचान – हिन्दुत्व
  3. भारत की सैनिक परम्परायें
  4. वीरता की प्रतियोग्यतायें
  5. प्राचीन वायुयानों के तथ्य
  6. अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण

दसवां प्रकरण – ज्ञानकोषों की तस्करी

ज्ञान-विज्ञान, कला और सभ्यता के सभी क्षेत्रों के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर से ही आरम्भ हुआ था। भारतीय ग्रन्थों के यूनानी भाषा में अनुवाद से आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप रिनेसाँ के काल में हुआ। रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। भारत के ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पाश्चात्य बुद्धजीवियों की तरह कोई पेटेन्ट नहीं करवाये इस लिये जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद विश्व में फैला तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान का हस्तान्तिकरण हो गया और विज्ञान के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने के लिये ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रयोग आरम्भ हुआ।

  1. भारत का वैचारिक शोषण
  2. भारतीय बुद्धिमता की चमक
  3. भारतीय ज्ञान का निर्यात
  4. योरुप में भारतीय रोशनी
  5. भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण
  6. पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त

ग्यारहवां प्रकरण – विनाश लीला

देश तथा धर्म के लिये अपने शहीदों की उपेक्षा करने से बडा और कोई पाप नहीं होता। अति सदैव बुरी होती है। हिमालय की गोद में हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति इतने निशचिन्त हो गये थे कि उन का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया। दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन बढ जाने से निर्धन लोग इस्लाम कबूलने लग गये। कर्मयोग को त्याग हिन्दू पलायनवाद पर आश्रित हो गये। अपने ही देश में आपसी असहयोग और अदूरदर्शता के कारण हिन्दू बेघर और गुलाम होते गये।

  1. क्षितिज पर अन्धकार
  2. इस्लाम का अतिक्रमण
  3. हिन्दू मान्यताओं का विनाश
  4. इस्लामीकरण का विरोध
  5. कुछ उपेक्षित हिन्दू शहीद
  6. अंग्रेजों की बन्दर बाँट

बारहवां प्रकरण – वर्तमान

धर्म राष्ट्रीयता से ऊपर होता है – बटवारे के बाद जब भारत की सीमायें ऐक बार फिर सिमिट गयीं तो हिन्दूओं को पाकिस्तान से निकलना पडा था। प्राचीन इतिहास से नाता तोड कर हम विश्व के सामने नवजात शिशु की तरह  प्रचारित किये गये विवादस्पद ‘राष्ट्रपिता’ का परिचय ले कर अपनी नयी धर्म-निर्पेक्ष पहचान बनाने में लगे हुए हैं। काँग्रेसी नेताओं ने आक्रान्ताओं को खण्डित भारत का फिर से हिस्सेदार बना लिया है और मुस्लमानों को प्रलोभनों से संतुष्ट रखना अब हिन्दूओं के लिये नयी ज़िम्मेदारी है। अपने वोट बैंक की संख्या बढा कर अल्पसंख्यक फिर से भारत को हडप जाने की ताक में हैं। उन्हों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया नहीं है। हमारे राजनैता उदारवादी बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है। हिन्दूओं की पहचान, राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्म-सम्मान  सभी कुछ नष्ट हो रहै हैं। हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा और पलायनवाद है। अगर हमें अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है तो एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होना पडे गा, उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़। गर्व से कहना हो गा कि हम हिन्दू हैं  और आदि काल से भारत हमारा देश है।  अगर अभी नहीं किया तो फिर कभी नहीं  होगा !  

  1. बटवारे के पश्चात भारत
  2. हिन्दू विरोधी गुटबन्दी
  3. आरक्षण की राजनीति
  4. अलगावादियों का संरक्षण
  5. अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू
  6. हिन्दूओं की दिशाहीनता
  7. धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र?
  8. ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति
  9. अभी नहीं तो कभी नहीं

निम्नलिखित हिन्दू महासागर का भाग नहीं हैं।

हिन्दू जागृति

हिन्दू गौरव

चेतावनी

राष्ट्रीयता

हिन्दू समाज

हमारे राजनेता

वर्तमान

मोदी सरकार

हमारा मीडिया


आजकल  टी वी पर कुछ नाम-मात्र ‘ऐतिहासिक’ सीरयल दिखाये जा रहै हैं जिन का मुख्य अभिप्राय अपने देश के लोक प्रिय नायकों की जीवनियों से छेड़ छाड़ कर के पैसा कमाना है। हालांकि अफवाहें फैलाना जुर्म है, मगर इन सीरियलों को निर्माता देश की नयी पीढी को गुमराह कर के देश द्रोह कर रहै हैं और हम अपने नायकों का अपमान देख देख कर अपना टाईम-पास कर रहै हैं।

अपनी बनावटी ‘इमानदारी’ दिखा कर कानूनी शिकंजे से बचने के लिये, निर्माता टेलीकास्ट के आरम्भ में ऐक छोटा सा ‘नोटिस’ लिख देते हैं कि – ‘यह सीरियल ऐतिहासिक होने का दावा नहीं करता और मनोरंजन के लिये इस में नाटकीय बदलाव किये गये हैं।’ जितनी देर में ऐक सामान्य आदमी किसी नोटिस को आराम से पढ सकता है उस से डेढ गुणा समय ज्यादा वह नोटिस टेलिकास्ट होना चाहिये, लेकिन जानबूझ कर यह औपचारिक नोटिस सक्रीन पर छोटी सी लिखावट में कुछ ही सैकिंड दिखाया जाता है ताकि उसे कोई पढ़ ही ना सके।

कलात्मिक दृष्टिकोण से इन सीरियलों का स्तर बहुत ही घटिया है। वास्तव में सभी सीरियल आजकल भडकीले कास्टयूम की माडलिंग ही करवा रहै हैं जिन का उस समय की वेष भूषा से कोई सम्बन्ध नहीं। वर्षों बीत जाने के बाद भी किसी पात्र में ‘बढती उमर’ का कोई प्रभाव ही दिखाई नहीं देता।

पाशर्व-संगीत का शौर इतना ज्यादा होता है कि संवाद सुनाई ही नहीं पडते क्योंकि लगातार कुछ ना कुछ ‘बजता’ ही रहता है। सब से सस्ता काम होता है किसी ‘सनैर-डर्म’ वाले को बैठा दिया जाता है और वह मतलब बेमतलब हर संवाद के अन्त में अपने डर्म पर चोट मारता रहता है। बीच बीच में अगर ज्यादा प्रभाव देना हो तो ‘सनैर-डर्म’ पर ही ऐक ‘रोल’ बजा देता है। थोडी बहुत चीं-पौं के स्वर कभी कभी दूसरे इन्स्ट्रूमेनट से भी सुना दिये जाये। दिन हो या रात, अन्दर हों या बाहर, सीन और भाव चाहे कैसे भी हों – सरकस की तरह लगातार ऐक ही तरह का शौरमयी ‘संगीत’ गूंजता रहता है। इन निकम्मे संगीत निर्देशकों को चाहिये कि कभी मुगले आजम (नौशाद) और आम्रपाली (शंकर जयकिशन) जैसी फिल्मों से सीखें कि ऐतिहासिक वातावरण का पार्शव संगीत कैसा होता है।

इन सभी सीरियलों में ऐक समानता देखने को मिले गी। ऐतिहासिक नायक (या नायका) को बचपन से ही उछल-कूद तरह की बाजीगिरी में दक्षता हासिल होती है। घोडे पर तलवार बाजी करना, ऊंची इमारतों से छलांगे लगाना, और अकेले ही दरजनों विरोधियों को परास्त करना आदि तो उन के लिये मामूली बातें हैं मगर अपने साथ होने वाले षटयंत्रों के विषय में वह नितान्त मूर्ख बने रहते हैं। उन में साधारण सूझ बूझ भी नहीं होती। उन के परिवार में पिता आम तौर पर ऊपर से अडियल और कडक, परन्तु अन्दर से ‘लाचार’ होता है और सौतेली मातायें या प्रेमिकायें नायक-नायका के खिलाफ हर तरह के षटयंत्र रचती रहती हैं जिन में से नायक नायका हर ऐपीसोड में किस्मत के भरोसे बाल बाल बचते रहते हैं।

इस तरह के ‘ऐतिहासिक’ सीरयल आजकल सालों साल चलते रहते हैं। जिस मुख्य ऐतिहासिक घटना के साथ नायक नायका की पहचान होती है उसे दिखाये जाने से पहले ही अचानक सीरियल समाप्त हो जाते है क्यों कि तब तक सिक्रिपट काफी दिशा हीन हो चुका होता है और दर्शकों को उस नायक नायका की जीवनी में कोई दिलचस्पी ही नहीं रहती। ऐतिहासिक तौर पर जो पात्र कभी आपस सें मिले ही नहीं थे, जिन्हों ने कभी अपने विरोधी को प्रत्यक्ष रूप में कभी देखा ही नहीं था उन के बीच में चटपटे कटाक्षी वार्तालाप इन सीरियलों का मुख्य आकर्षण बना दिये जाते है – क्योंकि दर्शकों को पहले ही बताया जा चुका है कि जिसे वह अपना इतिहास समझ रहै हैं उस के साथ तो मनोरंजन के लिये खिलवाड किया जा रहा है।

अगर आप के दिल में अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान है तो ज़रा सोचिये, ऐसा जान बूझ कर क्यों किया जा रहा है? क्या जानबूझ कर हमारी आगामी पीढियों को देश के इतिहास से विमुख करने की चेष्टा हो रही है? हमारे मानव संसाधन-विकास मन्त्री क्या सो रही हैं या उन्हें इतिहास की जानकारी ही नहीं? दिखाई गयी पटकथा के बारे में निर्माताओं से ऐतिहासिक प्रमाण क्यों नहीं मांगे जाते? क्या हम हिन्दुस्तानियों में मनोरंजन की भूख आजकल इतनी ज्यादा बढ चुकी है कि हम घटिया से घटिया कुछ भी बकवास सहने के लिये तैयार हैं?

चांद शर्मा


 

सोशल मीडिया में प्रखर ज्ञानियों के कुछ कमेन्ट्स पढ कर केवल औपचारिकता के नाते केवल अपने विचार लिख रहा हूँ। यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं मेरे निजि विचार हैं अगर किसी को तर्क-संगत ना लगे, तो ना आगे पढें और ना मानें। मेरे पास केवल ऐक साधारण व्यक्ति का दिमाग़ है, पहिरावा और साधन हैं और मैं जो कुछ साधारण बुद्धि से समझता हूँ वही दूसरों के साथ कई बार बाँट लेता हूँ। किसी दूसरे को सुधारने या बिगाडने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है।

सामान्य भौतिक ज्ञान

भौतिक शास्त्र के सामान्य ज्ञान के अनुसार सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वाचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने–बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन–विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न-भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जीवत प्राणी

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं। पशु-पक्षियों, जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधारित है। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने–आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

जीवन-आत्मा

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार बिजली कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार बिजली एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। बिजली काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी-अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है।

ऐकता और भिन्नता

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से बिजली प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है।

कण-कण में ईश्वर

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं और यह सिद्धान्त वेदों के प्रकट होने से भी पूर्व आदि-वासियों को पता था जो प्राकृति के अंगों में भी, ईश्वर को कण-कण में अनुभव करते थे और इन में मानवों से लेकर चूहे तक सभी शामिल हैं। स्नातन धर्म की शुरुआत यहीं से हुयी है।

ईश्वर की मानवी परिभाषा

ईश्वरीय शक्तियों को मानवी परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन के बारे में अभी विज्ञान भी बहुत कुछ नहीं जानता। जिस दिन विज्ञान या कोई महाऋषि जिन में स्वामी दयानन्द भी शामिल हैं ईश्वर को अपनी परिभाषा में बान्ध सके गे उसी दिन ईश्वर सीमित हो कर ईश्वर नहीं रहै गा। ईश्वर की शक्तियों के कुछ अंशों को ही जाना जा सकता है जैसे अन्धे आदमियों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर अनादी तथा अनन्त है और वैसे ही रहै गा। यही सब से बडा सत्य है।

समुद्र के जल में आथाह शक्ति होती है। बड़े से बड़े जहाज़ों को डुबो सकता है। लेकिन अगर उस जल को किसी लोटे में भर दिया जाये तो उस जल में भी समुद्री जल के सभी गुण विधमान होंते हैं लेकिन लोटे में रखा जल में जहाज़ को डुबोने की शक्ति नहीं हो गी । अगर उस जल को वापिस समुद्र में डाल दिया जाये तो फिर से जहाज़ों को डुबोने की शक्ति उस जल को भी प्राप्त हो जाये गी। यह बात भी पूर्णत्या वैज्ञानिक सत्य है।

मूर्ति की आवश्यक्ता

जैसे समुद्र के जल की सभी समुद्रिक विशेषतायें लोटे के जल में भी होती हैं उसी तरह चूहे में भी ईश्वरीय विशेषतायें होना स्वाभाविक है। लेकिन वह परिपूर्ण नहीं है और वह ईश्वर का रूप नहीं ले सकता। आप निराकार वायु और आकाश को देख नहीं सकते लेकिन अगर उन में पृथ्वी तत्व का अंश ‘रंग’ मिला दिया जाये तो वह साकार रूप से प्रगट हो सकते हैं । यह साधारण भौतिक ज्ञान है जिसे समझा और समझाया जा सकता है। आम की या ईश्वर की विशेषतायें बता का बच्चे और मुझ जैसे अज्ञानी को समझाया नहीं जा सकता लेकिन अगर उसे मिट्टी का खिलोना या माडल बना की दिखा दिया जाये तो किसी को भी मूल-पाठ सिखा कर महा-ज्ञानी बनाया जा सकता है। इस लिये मैं मूर्ति निहारने या उस की पूजा करने में भी कोई बुराई नहीं समझता। मूर्तियों का विरोध करना ही जिहादी मानसिक्ता है।

तर्क और आस्था

जहां तर्क समाप्त होता है वहीं से आस्था का जन्म होता है। जहां आस्था में तर्क आ जाये वहीं पर आस्था समाप्त हो जाती है और विज्ञान शुरु हो जाता है। दोनो गोलाकार के दो सिरे हैं। हम जीवन में 99 प्रतिशत काम आस्थाओं के आधार पर ही करते हैं और केवल 1 प्रतिशत तर्क पर करते हैं। माता-पिता की पहचान भी आस्था पर होती है। कोई भी व्यक्ति अपना DNA टेस्ट करवा कर माता पिता की पहचान सिद्ध नहीं करवाता। सूर्य की पेन्टिगं पर ‘ओइम’ लिख कर उसे अपना झण्डा बना लेना आर्य समाज की आस्था है, जो किसी वैज्ञानिक तर्क पर आधारित नहीं है, ऐक तरह का असत्य, और मूर्ति पूजा ही है।  लेकिन अपनी आस्था का आदर तर्कशास्त्री आर्य समाजी भी करते हैं।

हिन्दू-ऐकता

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। मेरा निजि मानना है कि वैदिक धर्म और सनातन धर्म ऐक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। आम के चित्र से बच्चे को आम की पहचान करवाना अधर्म या मूर्खता नहीं इसी तरह किसी चित्र से भगवान के स्वरूप को समझने में भी कोई बुराई नहीं वह केवल ट्रेनिंग ऐड है। बिना चित्रों के तो विज्ञान की पुस्तक भी बोरिंग होती है। आप अपने घर में अतिथियों को अपनेविवाह और जन्म दिन की ऐलबम दिखाते हो तो क्या वह सभी ‘असत्य ’ होता है?

भगवान राम ने भी रामेश्वरम पर शिवलिंग स्थापित कर के मूर्ति पूजा करी थी। तो क्या भगवान राम आर्य नहीं थे? कोई भी स्नातनी हिन्दू आर्य-समाजियों को मूर्ति पूजा के लिये बाध्य नहीं करता। लेकिन जिस तरह घरों में आर्य-समाजी अपने माता-पिता की तसवीरें लगाते हैं स्वामी दयानन्द सरसवती के चित्र लगाते हैं उसी तरह शिव, राम, और कृष्ण के चित्र भी लगा दें तो सारा हिन्दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी स्नातनी हिन्दू आर्य हैं और वेदों, उपनिष्दों, रामायण, महाभारत, दर्शन शास्त्रों और पुराणों को लिखने वाले सभी ऋषि आर्य थे। आर्य-समाजी नहीं थे। आर्य-समाज तो ऐक संगठन का नाम है।

आर्य समाजी सुधारक

हर आर्य-समाजी अपने आप को स्नातन धर्म का ‘सुधारक’ समझता है चाहे उस ने वेदों की पुस्तक की शक्ल भी ना देखी हो। आधे से ज्यादा आर्य समाजियों ने तो ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ भी नहीं पढा होगा। जरूरत है आर्य समाजी अपनी तालिबानी मानसिक्ता पर दोबारा विचार करेँ। आर्य समाजी कहते हैं ‘जर्मन और अंग्रेज़ों ने हमारे वेद पढ कर सारी प्रगति करी है। वैज्ञानिक अविष्कार किये हैं।’ चलो – यह बात तो ठीक है। उन्हों ने हमारे ग्रंथ पढ कर और रिसर्च करी, मेहनत करी और अविष्कार किये। अब आर्य समाजी यह बताये कि उन्हों ने अपने ग्रंथ पढ कर कौन-कौन से अविष्कार किये हैं। स्वामी दयानन्द ने उन्हें वेदों का महत्व बता दिया फिर आर्य समाजी किसी ऐक अविष्कार का नाम तो बताये। अगर नहीं करे तो क्यों नहीं करे?  क्या उस के लिये भी जर्मन, अंग्रेज़ या स्नातनी हिन्दू कसूरवार हैं? दूसरों को कोसते रहने से क्या मिला? आर्य समाजी कभी स्नातनी हिन्दूओं को कभी जैनियों – बौधों और सिखों का विरोध कर के हिन्दू ऐकता को  खण्डित करने के इलावा और क्या करते रहै हैं? दूसरों की ग़लतियां निकालने के इलावा इन्हों ने और क्या किया है – वह बताने का प्रयास क्यों नहीं करते?

हम ने अकसर आर्य समाजियों को स्नातनी विदूवानों को पाखणडी या मिथ्याचारी कहते ही सुना है। आर्य समाजियों के लिये अब चुनौती है कि दूसरों की निन्दा करते रहने के बजाये अब वह अपने वैदिक ज्ञान का पूरा लाभ उठाये और ‘मेक इन इण्डिया’ की अग्रिम पंकित में अपना स्थान बनाये। आस्था का दूसरा नाम दृढ़ निश्चय होता है। आप किसी भी मूर्ति, वस्तु, स्थान, व्यक्ति, गुरु के साथ आस्था जोड कर मेहनत करने लग जाईये सफलता मिले गी। वैज्ञानिक की आस्था अपने आत्म विशवास और सिखाये गये तथ्यों पर होती है। वह प्रयत्न करता रहता है और अन्त में अविष्कार कर दिखाता है।

जिहादी मानसिक्ता

किसी हिन्दू को अपने आप को आर्य कहने के लिये आर्य समाज से प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। सभी हिन्दू आर्य हैं और सभी आर्य हिन्दू हैं। फिर आर्य समाज ने दोनो के बीच में अन्तर क्यों डाल रखा है।  स्नातन धर्म ने तो स्वामी दयानन्द को महर्षि कह कर ही सम्बोधित किया है। लेकिन यह समझ लेना कि स्वामी दयानन्द सर्वज्ञ थे और उन में कोई त्रुटि नहीं थी उसी इस्लामी मानसिक्ता की तरह है जैसे मुहम्मद के बाद कोई अन्य पैग़म्बर नहीं हो सकता।

अधाकांश आर्य समाजियों के मूहँ से वेदिक ज्ञान कम और दूसरों के प्रति आलोचनायें, निन्दा, गालियां ही अधिक निकलती हैं जैसे सत्य समझने – समझाने का लाईसेंस केवल उन्हीं के पास है। सत्य की खोज के बहाने सभी जगह वह यही खोजने में लगे रहते हैं हर धर्म घटक में गन्दगी कहाँ पर है। इसे सत्य की खोज तो बिलकुल ही नहीं कहा जा सकता।

चुनौती

कुछ करना है तो आर्य समाजियों को युवाओं में नैतिकता का पाठ पढाने की चुनौती स्वीकार करनी चाहिये। लव-जिहाद, लिव-इन-रिलेशस, वेलेन्टाईन-डे, न्यू-इयर-डे, आतंकवादियों आदि की विकृतियों को भारत में फैलने से रोकने के लिये क्या करना चाहिये, उस पर विचार कर के किसी नीति को सफलता से अपनाये और सक्षम कर के दिखायें।

बच्चों और युवाओं को वेद-ज्ञान, संस्कृत भाषा का आसान तरीके से ज्ञान का पाठ्य क्रम तैय्यार कर के ऐसा साहित्य तैय्यार करें ताकि वह ‘जेक ऐण्ड जिल’ को भूल कर भारतीयता अपनायें और साथ ही साथ ज्ञान भी हासिल करें। ज्ञान का अर्थ कुछ मंत्र रटा कर तोते की तरह बुलवाना नहीं होता, बल्कि ज्ञान को इस्तेमाल कर के वह अपनी जीविका इज्जत के साथ कमा सकें। युवाओं को व्यकतित्व विकास की शिक्षा आधुनिक तकनीक के साथ लेकिन भारतीय वैदिक संस्कृति के अनुरूप किस प्रकार दी जाये इस को क्रियात्मिक रूप देना चाहिये। व्यकतित्व ऐसा होना चाहिये जो दुनियां के किसी भी वातावरण में आत्म विश्वास और दक्षता के साथ आधुनिक उपकरणों के साथ काम कर सके। ऐसा व्यकतित्व नहीं बने कि वह केवल दूर-दराज गाँव में छिप कर, या दोचार भजन गा कर ही अपनी जीविका कमाने लायक ही बन पायें।

किसी प्रकार का साफ्टवेयर या हार्डवेयर अपनी वैदिक योग्यता से सम्पूर्ण स्वदेश बनायें ताकि हमें बाहर से यह सामान ना मंगवाना पडे। हमारे पास इंजीनियर, तकनीशियन, प्रयोग-शालायें, अर्थ-शास्त्री आदि सभी कुछ तो है। अब क्यों नहीं हम वह सब कुछ कर सकते जो अंग्रेज़ों और जर्मनी वालों ने आज से 200 वर्ष पूर्व  “हमारी नकल मार के” कर दिखाया था। इस प्रकार के कई सकारात्मिक काम आर्य समाजी अब कर के दिखा सकते हैं। उन्हें चाहिये कि आम लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण दिखायें कि हमारा यह हमारा ज्ञान विदेशियों ने चुराया था, अब हमारे पास है जिस का इस्तेमाल कर के हम विश्व में अपनी जगह बना रहै हैं। रोक सको तो रोक लो। केवल मूर्ति पूजा का विरोध कर के और अपने वेदों का खोखला ढिंढोरा पीट कर आप विश्व में अपनी बात नहीं मनवा सकते। कुछ कर के दिखाने की चुनौती आर्य बन्धुओं, वेदान्तियों और प्रचारकों को स्वीकार करनी पडे गी।

सत्यं वदः – प्रियं वदः

बहस और शास्त्रार्थ में ना कोई जीता है और ना ही कोई जीते गा। मैं भारत की प्राचीन उपलब्धियों का पूर्ण समर्थन करता हूँ लेकिन लेकिन आर्य समाजी मानसिक्ता का नहीं। सत्य को कलात्मिक तरीके से कहना ही वैज्ञानिक कला है। ऐक नेत्र हीन को सूरदास कहता है तो दूसरा अन्धा – बस यही फर्क है। “सत्यं वदः – प्रियं वदः ” का वेद-मंत्र  आर्यसमाजी भूल चुके हैं। इस लिये किसी की आस्था का अपमान कर के सत्यवादी या सुधारक नहीं बन बैठना चाहिये। यही भूल स्वामी दयानन्द ने भी कर दी थी। अब उसी काम का टेन्डर आमिर खान ने भर दिया है और प्रोफिट कमा रहा है। जो कुछ बातें आर्य समाजी करते रहै हैं वही आमिर खान ने भी करी हैं जिस का समर्थन फेसबुक पर आर्य समाजी कर के हिन्दूओं का मज़ाक उडा रहै हैं। सोच कर देखो – दोनों में कोई फर्क नहीं।

मेरा लक्ष्य केवल अपने विचार को दूसरों के साथ शेयर करना है किसी को मजबूर करना या उन का सुधारक बनना नहीं है। मुझे भी अब आगे बहस नहीं करनी है। जो सहमत हों वही अपनी इच्छा करे तो मानें। वेदिक विचार और सनातनधर्म की आस्था दोनों ऐक ही सिक्के के पहलू हैं और दोनों बराबर हैं। किसी को भी अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बन कर दूसरे का सुधारक बनने की जरूरत नहीं।

चाँद शर्मा

निर्धारित स्थान कम होने के कारण श्री वेदानुरागी जी की टिप्पणियों का उत्तर यहां दिया जा रहा हैः –

 

आप की टिप्पणियों के बारे में मैं केवल अपने विचारों को स्पष्ट कर रहा हूँ उन को मानना या ना मानना आप की मरज़ी है। आर्य-समाजी अपने वेदिक ज्ञान की चोरीका दोष दूसरों के सिर मढ़ते रहने के बजाये खुद कोई चमत्कारी अविष्कार कर के दिखायें तभी देश और वेदों का गौरव वास्तव में बढे गा।

भगवान की सारी परिभाषायें मानवों ने ही बनाई हैं। भगवान उन परिभाषाओं से परे भी हो सकते हैं जो आजतक बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और ऋषियों ने बनाई हैं। ईश्वर को देखने और दिखाने का दावा करने वाले सभी प्रवक्ता उन अन्धे आदमियों की तरह हैं जिन्हों ने हाथी को टटोल कर प्रमाणित कर दिया था। इस लिये यह कहना कि ईश्वर यह कर सकता है, वह नहीं कर सकता आदि बेकार की बातें हैं।

इस देश में हजारों ऋषि-मुनि हुये हैं जो स्वामी दयानन्द सरस्वती से भी अधिक विद्वान थे। उन सभी के ज्ञान को केवल सत्यार्थ-प्रकाश पढ कर पाखण्ड’, ‘असत्य, याअनर्गलबातें कहना, अपने आप को सभी का सुधारक बोल कर अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बने रहना तालिबानी मानस्क्ता नहीं तो और क्या है? स्वामी दयानन्द ने अपने विचारों का ऐक थिसिस सत्यार्थ-प्रकाश लिखा है वह उन के व्यक्तिगत विचार थे। कोई भी स्नातक कुछ गिने-चुने विषयों में पारंगत हो सकता है, विश्वविधालय की सभी फैक्लटियों में पारंगत नहीं माना जाता। स्नातन धर्म के किसी भी प्राचीन ऋषि, या महऋषि ने सर्वज्ञ होने का दावा कभी नहीं किया।

आदि-मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं तथा उपलब्धियों का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे-धीरे आर्य समाज की स्थापना से सैंकडों वर्ष पूर्व स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया है। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं जिन्हें वेदिक-धर्म कहा जाता रहा है।

आर्यशब्द का प्रयोग श्रेष्ठ तथा सभ्यव्यक्ति के लिये किया जाता है भारत में बाहर से आने वालों को उन की सभ्यता और रहन सहन के अनुसार यवन, मलेच्छ, विधर्मी, दस्यु या अनार्य कह कर पहचाना जाता था।आर्य-समाजऐक संस्था का नाम है इसी संस्था के लोगों को आजकल आर्य-समाजीकहा जाता है। वास्तव में सभी स्नातन धर्मी आर्यहैं और सभी आर्यहिन्दू हैं। इस ऐकता को समझना चाहिये। उसी तरह आर्य-समाजियों के अपने आप को हिन्दू कहने में शर्माना नहीं चाहिये।

आदि काल से ही हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता आया है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। हिन्दू धर्म ने कुछ सार्थक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी महत्व दे कर अपनाया है। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

जब आप कोई फिल्म देखते हैं तो फिल्म की कहानी, पात्र, दृष्य और सम्वाद सभी कुछ ‘असत्य’ है लेकिन फिर भी फिल्म के वातावरण के साथ अपनी भावनाओं को जोड कर दर्शक हँसते, रोते और भावुक हो जाते हैं। उसी तरह मन्दिर या किसी धर्म-स्थल के वातावरण में भक्त अपनी भावनाओं को जोड कर भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। किसी भी विषय से सम्बन्धित अगर कोई ट्रैनिंग-ऐड नौसिखियों के इलावा अगर किसी विकसित के लिये भी इस्तेमाल कर दी जाये तो वह कोई बहुत बडा अपराध नहीं हो सकता। अगर कोई व्यस्क भी अपनी इच्छा से मूर्ति पूजा कर लें तो उस में कोई बुराई नहीं है।

आप का कथन “ईश्वर चूहे में है लेकिन चूहा ईश्वर नहीं है”- लेकिन चूहा भी उसी ईश्वर का अंश तो हैअगर आप किसी रंग-बिरंगे शीशों-जडित कमरे में खडे होकर अपना प्रतिबिम्ब देखें गे तो वह हर शीशे में टुकडे के रंग के अनुसार ही दिखाई दे गा। इस का अर्थ यह नहीं कि आप को ‘बांट’ दिया गया है। उसी तरह सृष्टिकर्ता भगवान का प्रतिबिम्ब भी हर क़ृति में है, जिस में चूहा भी शामिल है। भगवान की छवि चूहे या किसी भी छोटे-बडे जीव में निहार लेना भगवान को टुकडों में बांटना नहीं होता। उस के लिये फतवा जारी कर देना कि मूर्ति को ईश्वर मान कर उसकी पूजा करना आध्यात्मिक अपराध है केवल तालिबानी मानसिक्ता के सिवा और कुछ नहीं।

जिस तरह वायु सभी जगह मौजूद है परन्तु अदृष्य है, रंग या धूयें के माध्यम से प्रगट हो कर दिखाई दे देती है, उसी तरह ईश्वर भी सभी जगह मौजूद है मगर दिखाई नहीं देते। वह किसी भी स्थान पर किसी अन्य माध्यम से प्रगट होने का आभास दे सकते हैं। मैं ने चूहे की मूर्ति पूजा करने को नहीं कहा था लेकिन चूहे के कारण सभी मूर्तियों में भगवान का ना होने का फतवा देना भी ज्ञानयुक्त नहीं था।

अगर भगवान की मूर्ति से थोडा प्रसाद चूहे ने उठा लिया था तो भगवान क्या बालक मूलशंकर की शंका को समाप्त करने के लिये वहां चूहे को प्रसाद चुराने के अपराध में भस्म कर देते? अगर आप ही का अबोध ग्रैंडसन आप के खाने की प्लेट में से बिना पूछे कुछ उठा कर खा ले तो क्या आप उसे दण्ड दें गे?

अगर कोई अपनी आस्था किसी वस्तु में रखता है तो आप का क्या जाता है। आप उस पर बेकार नुक्ताचीनी मत करो। मूर्ति पूजा विरोधी तालिबानी ऐजेण्डा मत अपनाओ। हिन्दू समाज में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये सब घटकों के साथ चलो। इस प्रकार का कथन कि “हम तो सभी के सुधारक हैं ” उद्दण्ड मानसिक्ता का प्रतीक है ।

आप ने लिखा है कि “आर्य समाज के विद्वान शोध कर नए साधन बनायेंगे लेकिन पहले उनके समुचित वेतन की व्यवस्था कर…अरब रुपया खर्च कर के एक शोध केंद्र बना कर दीजिये…गुरुकुल आर्य समाज के सब से ज्यादा हैं। ” अगर आप योरुप के वैज्ञानकों की जीवनियां पढें तो आप को पता चले गा कि उन में से किसी के पास सरकारी साधन नहीं थे। उन्हों ने पहले अपने सीमित साधनों के बल पर ही अपने प्रयासों को शुरु किया था। आविष्कार करने के लिये पहले उद्देश की कल्पना करनी पडती है फिर उस का चित्र बनता है। चित्र के अनुसार अविष्कार की मूर्ति (माडल) तैय्यार की जाती है। फिर माडल को साकार करने के लिये सीमित साधन, लग्न, आस्था, सकारात्मिक सोच और हिम्मत की जरूरत पडती है। शुष्क विज्ञान की जरूरत इस के बाद पडती है।

राईट बन्धु उडने की कल्पना कर के अपने जिस्म पर पक्षियों की तरह पंख लगा कर छत से कूद पडे थे। हिम्मत के सहारे काम करते रहै और ऐक दिन हवाई जहाज बन गया। योरुप के वैज्ञानिक हमारा वेदिक ज्ञान चुरा कर अविष्कार के बाद अविष्कार करते चले गये और हमारे स्वदेशी आर्य समाजी केवल मूर्ति विरोध को अपना ऐजेंडा बना कर आज भी वहीं खडे हैं।

जार्ज स्टीफ्नसन ने जब देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो पहले उस को प्रयोग में लाने के लिये कल्पना के सहारे चित्र बनाये जो आर्य-समाजी सोच के अनुसारअसत्यथे। ऐक बालक ने देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो उस ने अपनी इमेजिनेश्न, आस्था, सकारात्मिक वैज्ञानिक सोच और लग्न के सहारे स्टीम इंजन बना कर दिखा दिया।

चित्र का बनाना इस्लाम में भी अपराध है इस लिये आज तक किसी मुस्लिम ने भी कोई अविष्कार नहीं किया। शुष्क वेदिक ज्ञान होते हुये भी हमारे पास कल्पना की उडान, सक्रात्मिक सोच और हिम्मत नहीं थी इसी लिये आर्य-समाजी भी कोई अविष्कार नहीं कर सकते और केवल मूर्तियों के माडलों के बहिष्कार पर ही फतवा जारी करते रहै हैं।

आप का तर्क है कि “आपके पुराणों में लिखा है की गणेश जी का सर शिव जी ने हाथी के बच्चे का सर काट कर लगा दिया था तो आप क्या ऐसा कर के दिखा सकते हैं ? यदि नहीं तो कम से कम इस झूठी कहानी को तो नकार दीजिये” पुराणों में भी शुष्क वेदिक ज्ञान को कलात्मिक ढंग से समझाया गया है।

‘कनसेपेप्ट’ हमेशा काल्पनिक, और कई बार फूहड तथा हास्यस्पद भी होती है लेकिन जब लग्न और ‘टैक्नोलोजी’ के सहारे वह साकार हो उठती है तो उसे ही अविष्कार कहा जाता है। ‘कनसेपेप्ट’ दीर्घायु होती है मगर ‘टैक्नोलोजी’ तेज़ी से बदलती रहती है। पुराणों की कल्पना को आज के विज्ञान ने साकार कर के दिखा दिया है। अगर स्वामी जी के नीरस दिमाग़ में थोडी कलात्मिक कल्पना शक्ति भी होती तो उन्हों ने पुराणिक ज्ञान की निन्दा नहीं करनी थी। स्नातन धर्म हिन्दू विचारधारा का कलात्मिक पक्ष है जब कि वेदिक धर्म वैज्ञानिक पक्ष है – दोनो ऐक दूसरे के पूरक हैं। ऐक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

जिन संत कवियों के अंशो का सहारा आप ने लिया है वह ना तो वेदिक साहित्य के ज्ञाता थे और ना ही संस्क़त भाषा के सनात्क थे। जो कुछ उन के निजि विचार थे वह उन्हों ने अपभ्रंश भाषाओं में लिख डाले हैं। सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा कलात्मिक उन्नति के लिये उन्हें कीर्तिमान नहीं माना जा सकता। अगर में कहूँ कि ऐक कवि ने यह भी लिखा है “ तेरी सूरत में रब दिखता है यारा मैं क्या करूं? ” तो केवल इसी आधार पर आप मूर्ति पूजा करने लग जायें गे?

 

अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ था। लेकिन कृष्ण का महत्व कपडे और माखन चुराने या 16 हज़ार रानियां रखने के कारण नहीं है – गीता के ज्ञान के कारण है। दुर्भाग्य यह है कि आर्य-समाजी तो गीता और मनुस्मृति के भी विरोघी हैं।

 

रीति-रिवाज सामाजिक होते हैं, उन्हें समयानुसार बदला जा सकता है। शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। कई कुरीतियों ने जन्म लिया था। हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे। अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन पड गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विवाह नहीं किया था इस लिये वह गृहस्थाश्रम की जिम्मेवारियों को नहीं समझते थे वरना रीति रीवाजो के लिये ब्राहमणों को दोषी ना बोलते। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा और यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया।

 

भारत में सती प्रथा बाहर से आयी है। उस का समर्थन हिन्दूओं ने कभी नहीं किया। यदि आप इस तथ्य को प्रमाणों के साथ जानना चाहें तो इस लिंक पर पढ सकते हैं जो विषय को संक्षिप्त रखने के लिये मैं यहां पर दोबारा नहीं लिख रहा हूँ।

 

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं।

हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है। हिन्दूओं का धर्मान्तरण कराने के लिये अकसर कहा जाता है कि सती प्रथा की आड में हिन्दू विधवाओं को जीवित जला दिया जाता था तथा हिन्दू जन्म के समय ही कन्याओं का वध कर देते थे। दुष्प्रचार के प्रभाव तथा निजि अज्ञानता के कारण हिन्दू अपने आप को हीन समझ कर आज भी उन की हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं और अपने धर्म के प्रति शर्मिन्दा हो जाते हैं। वह नहीं जानते कि वास्तव में इन बातों का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। तथ्य इस के विपरीत है। प्रमाण जानने के लिये कृप्या यह लिंक देख लें। http://wp.me/p2jmur-5J .


 

अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या हिन्दू धर्म के खिलाफ बकवास करने से ही मिलती है? अगर सिरफिरा मकबूल हुसैन हिन्दू देवी देवताओं के अशलील चित्र बना कर बेचे तो वह हमारे बिकाऊ हिन्दू विरोधी मीडिया और देश द्रोहियों के अनुसार चित्रकार की कलात्मिक स्वतन्त्रता गिनी जाती है लेकिन अगर तसलीमा नसरीन इस्लाम के खिलाफ कुछ लिख दे तो उस की कृति देश में पढी जाने से पहले ही बैन कर दी जाती है। छत्रपति शिवाजी के खिलाफ कुछ भी झूट लिखा जा सकता है लेकिन नेहरू गांधी परिवारों के बारे में सच्ची बातें भी बैन हो जाती हैं। यह दोहरे माप दण्ड केवल हिन्दूओं के खिलाफ ही अपनाये जाते हैं और केवल उन्हें ही सहनशीलता की नसीहत भी करी जाती है। मीडिया चैनल दोचार जाने माने चापलूसों को लेकर बहस करने बैठ जाते हैं और गलियों में निन्दा चुगली करने वालों की तरह दिन भर यह खेल हमारे राष्ट्रीय कार्यक्रमों का प्रमुख भाग बन जाता है।

फिल्म “PK”

फिल्म “PK” पर बैन की मांग को लेकर लोगों का सडकों पर आक्रोश तो देखा जा सकता है लेकिन उन का लक्ष्य सही नहीं है। लोगों का आक्रोश फिल्म के निर्माता, निर्देशक, कलाकारों, सिनेमा घरों तथा सैंसर बोर्ड के विरुध है जिन्हों ने जानबूझ कर हिन्दूओं की भावनाओं की अनदेखी करते हुये फिल्म बनाई और उसे दिखाने की इजाज़त दे डाली। इन लोगों के अडियल रवैये के कारण अब तो हिन्दूओं का इन संस्थानों से विशवास ही उठ चुका है जिस का प्रमाण धर्माचार्यों का खुल कर बैन का समर्थन करना है। आशा और अपेक्षा है कि आनेवाले दिनों में अन्य हिन्दू-सिख धर्मगुरु भी इस धर्मयुद्ध में जुडें गे और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये आर-पार के संघर्ष का नेतृत्व करें गे।

शंकराचार्य

कुछ महीने पूर्व शंकराचार्य जी ने साईं की मूर्तियां हिन्दू मन्दिरों से हटवाने के लिये अखाडों को इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये चुना था लेकिन अधिकांश हिन्दूओं ने अपना संयम बनाये रखा था। अब लगता है कि अगर सरकार हिन्दूओं के स्वाभिमान की रक्षा के लिये ठोस कारवाई नहीं करती तो अपने स्वाभिमान की रक्षा का भार हिन्दू धर्म नेता स्वयं उठायें। हिन्दू समाज इकतरफा सरकारी धर्म निर्पेक्षता से ऊब चुका हैं और नेताओं के खोखले वादों तथा लच्चर कानूनों के कारण पानी सिर से ऊपर जा चुका है।

भारतीय संस्कृति

नरेन्द्र मोदी केवल कानूनों के ज्ञाताओं को विदेशों से भी मंगवा कर अपने देश में जज बना सकते हैं लेकिन वह ऐक्सपर्ट देश की संस्कृति की रक्षा करने के योग्य नहीं हो सकते। इसलिये हमारी मांग है कि संवैधानिक पदों पर जिन लोगों का चैयन किया जाता है उन्हें भारत की संस्कृति की केवल जानकारी ही नहीं होनी चाहिये बल्कि उन्हें भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा भी होनी चाहिये। उन्हें अब यह भी विदित करवाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति की परिभाषा में वह समुदाय कदापि नहीं आते जिन का मूल देश के बाहर हुआ है। जो केवल हिन्दूओं को परिवर्तित करने या गुलाम बनाने के लिये भारत को लूटते रहै थे। मोदी भले ही अपने लिये धर्म निर्पेक्ष रह कर वोट बटोरने की राजनीति करते रहैं मगर यह भी याद रखे कि अगर वह भारत में ही हिन्दूओं के स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकें गे तो फिर अपनी सरकार के दिन भी गिनने शूरू कर दें।

स्वामी रामदेव

बी जे पी समर्थक स्वामी रामदेव और दवारका के कांग्रेसी समर्थक शंकराचार्य फिल्म “PK” के विरोध में अब आये हैं – जब सांप हिन्दूओं को काट कर जा चुका है। बाद में “सांप-सांप” चिल्ला कर लकीर पीटने से क्या फायदा? फिल्म “PK”  के निर्माता ने जो कमाना था उस से कहीं ज्यादा उस ने तो कमा लिया और कमाई का हिस्सा पाकिस्तान को भी दे दे गा। फिल्म की प्बलिसिटी भी अब जरूरत से ज्यादा हो चुकी है। अब इस की सी-डी भी  पाकिस्तान और मुस्लिम देशों में खूब बिके गी। यह कमाई फिल्म “PK” ने हिन्दूओं के देश में ही हिन्दूओं के मूहं पर थूक कर हिन्दूओं से ही करी है।

हिन्दूओं का आक्रोश

अब हिन्दू जाग रहै हैं। आस्थाओं का घोर अपमान होने के कारण हिन्दूओं का आक्रोश अब पूर्णत्या तर्क संगत है। उन्हें सहनशीलता के खोखले सलाहकारों की ज़रूरत नहीं। लेकिन विरोध उन लोगों के होना चाहिये जो व्यक्तिगत तौर पर इस के मुख्य कारण हैं। यह नहीं होना चाहिये की अपमान तो कोई दूर बैठा राजेन्द्र करे, और क्रोध में चांटा पास खडे धर्मेन्द्र को जड दिया जाये। अगर अब हिन्दूओं को अपनी साख बचानी है तो इतना तीव्र आन्दोलन होना चाहिये कि निर्माता की पूरी कमाई जब्त करी जाये, फिल्म पर टोटल प्रतिबन्ध लगे। फिल्म की सी-डी भी जब्त हों। निर्माता और निर्देशक और लेखक को औपचारिक नहीं – वास्तविक जेल हो, तथा सैंसर बोर्ड के सदस्यों को भी देश द्रोह के लिये जेल की सज़ा हो ताकि भविष्य में किसी कुत्ते को हिन्दूओं की भावनाओं से खेलने की हिम्मत ना हो।

जले पर सरकारी नमक

लेकिन हमारी चुनी हुयी सरकारों ने अब तो हिन्दूओं की जली हुयी भावनाओं पर नमक छिड़क दिया है।

  • सैंसर बोर्ड की अध्यक्षा शीला सैम्सन ने फिल्म को दोबारा चैक करने से इनकार कर दिया है।
  • उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐक कदम आगे बढ कर फिल्म पर मनोरंजन टेक्स ही माफ कर दिया है। इसे आग में घी डालना कहते हैं।
  • महाराष्ट्र में हिन्दूओं की अगवाई का दावा करने वाली शिव सैना ने इस फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने के लिये चुप्पी क्यों साध रखी है। क्या मन्त्री मण्डल में कुर्सी पाने का बाद उन का सैकूलरिज़म जाग उठा है।

यह भी याद रखना चाहिये की थर्ड फर्न्ट की सरकार नें आते ही सैंसर बोर्ड बोर्ड के अध्यक्ष पद से अनुपम खैर को बर्खास्त किया था और तमाम धार्मिक सीरियलों के ऐकस्टेंशन पर रोक लगवा दी थी। मोदी सरकार ने हिन्दूओं के घाव पर मरहम लगाने के बजाये आमिर खां को अपनी प्रोग्रामों में ब्रांड ऐम्बेसडर बना दिया है। साफ जाहिर है कि नरेन्द्र मोदी की अगवाई में बी जे पी भी अब सत्ता के मोह में कांग्रेस के रास्ते पर ही चल पडी है। जरूरत है हिन्दू नरेन्द्र मोदी से अपनी अपेक्षाओं के बारे में दोबारा सोचना शुरु कर दें।

हिन्दूओं की अनदेखी

मोदी सरकार के नेताओं ने अपने अपने पेज तो सोशल मीडिया पर खोल दिये हैं लेकिन वह सभी इकतरफा हैं। आप कुछ भी पोस्ट कर दें कोई उत्तर या प्रतिक्रिया नहीं आती। यह सिर्फ छलावा मात्र हैं। दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं। नरेन्द्र मोदी समेत सभी बी जे पी के छोटे बडे सभी नेता अल्प-संख्यकों के तुष्टिकरण में लगे हैं। आमिर खान से ले कर कामेडियन कपिल शर्मा तक को मोदी जी अपने साथ किसी ना किसी बहाने की भीड को जोडने में लगे है और हिन्दूओं को भूल चुके हैं। इसलिये हिन्दूओं की अनदेखी करने के लिये ऐक झटका बी जे पी को भी लगना चाहिये। जब तक आमिर खान और से जुडे लोगों को गिरफ्तार नहीं किया जाता मेरा तो निजि फैसला है कि फेसबुक या किसी अन्य स्थान पर बी जे पी के पक्ष में कुछ नहीं लिखूं गा। सभी हिन्दू साथियों से मेरा अनुरोध है कि हो सके तो वह अपने निजि योग्दान को स्थगित कर दें। जब बी जे पी के नेता दिल्ली में वोट मांगने आयें तो उन्हें हिन्दूओं की चेतावनी याद रहनी चाहिये। फूलों के हार के बदले हिन्दू भावनाओं की अनदेखी करने का कलंक बी जे पी की हार के रूप में उन के माथे पर चिपक जाना चाहिये।

लगातार चुनावी विजय में धुत मोदी सरकार को अब याद रहै कि भावनाओं की अभिव्यक्ति की आज़ादी हिन्दूओं को भी है। अगर आप सहमत हैं तो कृप्या शेयर करें।

चाँद शर्मा


 

कुछ लोगों को हमैशा शिकायत करते रहने की आदत बन चुकी है। उसी आदत के कारण वह सभी जगह मीडिया पर अपने उतावले-पन और ‘राजनैतिक सूझ-बूझ’ का परिचय भी देते रहते हैं। हर बात में सरकार को कोसते रहते हैं। ‘मोदी जी ने यह नहीं किया, वह नहीं किया’ – ‘वह सैकूलर बन गये हैं’, ‘विदेशों में सैर करते फिरते हैं’। ‘काला धन वापिस ला कर अभी तक ग़रीबों में बांटा क्यों नहीं गया’? ‘गऊ हत्या बन्द क्यों नहीं करी गयी’ – आदि। अगर यह शिकायतें ‘AAP’ वाले करें तो हैरानी की कोई बात नहीं क्योंकि उन्हें और कुछ करना आता ही नहीं। मगर जब वह लोग करते हैं जो आज से 6-7 महीने पहले ‘मोदी-समर्थक’ बनने का दावा करते थे तो उन की सूझ बूझ और उतावले-पन पर हैरानी होती है। 

निराशा का वातावरण

उन उतावले मोदी समर्थकों को इतना पता होना चाहिये कि अगले पाँच वर्ष में अगर नरेन्द्र मोदी देश का कुछ भी ‘चमत्कारी’ भला ना भी करें, और जितना बुरा आजतक हो चुका है उसे आगे फैलने से ही रोक सकें तो वही उन की बहुत बडी कामयाबी हो गी। हमारे हर तन्त्र में गद्दार, भ्रष्ट और स्वार्थी लोग जम चुके हैं। उन को उखाड कर इमानदार लोगों को बैठाना है। उन को अपनी-अपनी जिम्मेदारी सम्भालने और समझने के लिये भी वक्त देना हो गा।

क्या हम मनमोहन सिहं और उन की किचन-सरकार को भूल चुके हैं जिस ने पिछले दस वर्षों में देश को अमेरिका का गुलाम ही नहीं, सोनिया परिवार का ही गुलाम बना दिया था। जिन के काल में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था। जो अपने स्वाभिमान को ताक पर रख कर कहते थे कि “मैं मजबूर था, ” जिन के मन्त्री मण्डल के आदेश को ऐक मूर्ख छोकरे ने टी वी पर फाड कर रद्दी की टोकरी में फैंक दिया था। जिन के शासन में पाकिस्तानी हमारे देश के जवानों के सिर काट कर ले गये थे और सरकार ने सैनाध्यक्ष को वर्दी पहना कर उस की विधवा को सांत्वना देने के लिये भेज दिया था – बस। वह सरकार जो नकसलियों के खिलाफ बल प्रयोग करने में हिचकती थी। जिस सरकार का प्रधान मन्त्री किसी के साथ भी सोनिया-राहुल के आदेशानुसार कोई भी समझोता कर सकता था जो मालकिन और छोटे मालिक को पसन्द हो। जिन्हें अपनी इज्जत का कोई ख्याल नहीं था वह देश की इज्जत क्या खाक बचायें गे।

सकारात्मिक सोच

हमारे देश के चारों तरफ छोटे छोटे देश भी मनमोहन सरकार ने भारत के दुशमन बना दिये थे जिन्हें सम्भालने का काम नरेन्द्र मोदी ने अपना पद सम्भालते ही कामयाबी के साथ करना शुरु कर दिया है। देश के आर्थिक और तकनीकी विकास के लिये बाहर से साधन जुटाने मे सफ़लता हासिल करी है। दिशाहीन मन्त्रालयों को दिशा निर्देश और ‘लक्ष्य ’दिये हैं जिन की रिपोर्ट बराबर मांगी जा रही है। राज्यों से ‘परिवारवादी सरकारों’ को उखाड फैंका है और यह काम अभी दो साल तक और चले गा। राज्यसभा में मोदी जी के पास बहुमत नहीं है। विपक्षी लोग ‘रिशतेदारियां बना कर’, ऐकजुट हो कर सरकार के लिये आये दिन अडचने खडी कर सकते हैं, कर रहै हैं, और करते रहैं गे। कई विपक्षी राज्य सरकारें मोदी जी के साथ नहीं हैं। वह तभी बदलें गी जब वहां इलेक्शन हों गे। वह मोदी जी की नीतियों को आसानी से स्वीकार नहीं करें गे। कुछ बातों के लिये कानूनों और शायद संविधान में भी संशोधन करने पडें गे। इन सब कामों में समय लगे गा।

राष्ट्र-निर्माण की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं होती, नागरिकों की भी होती है। सरकार तो सिर्फ दिशा-निर्देश देती है। क्या हम ने कभी अपने आप से पूछा कि पिछले 6-7 महीनों में हम ने कौन कौन से सकारात्मिक काम निजि तौर पर करे हैं? क्या पुरानी खराब आदतों को छोड कर अच्छी नयी बातें अपने रोज़ मर्रा के जीवन में पनाई हैं? क्या हम ने स्वच्छता, स्वदेशी, राष्ट्र भाषा, समय की पाबन्दी, ट्रेफ़िक नियमों का पालन, कामकाज में इमानदारी को अपनाया है? क्या अपने कार्य क्षेत्र में जहां तक हमारा अधिकार है, वहां लागू किया है? क्या अपने उच्च अधिकारी को उन बातों में सहयोग दिया है? अधिकांश लोग अपने मन में जानते हैं कि उन्हों ने वैसा कुछ भी नहीं किया।

हमारी खुशनसीबी

काँग्रेस की मनहूस ज़माने के उलट आज हमारी खुशनसीबी है कि वर्षों के बाद हमारे पास ऐसा इमानदार, कर्मठ, देश सेवक प्रधान मन्त्री है जिस का निजि स्वार्थ कुछ भी नहीं है। जो दिन में 18 घन्टे काम करता है, देश के प्रति समर्पित है, देश की मिट्टी में पढा और बडा हुआ है। भारतीय-संस्कृति से जुडा हुआ है। जो दिखावे की गरीबी नहीं करता, जिस को कोई व्यसन नहीं है। जिस के परिवार का कोई व्यकति सरकारी तन्त्र में झांक भी नहीं सकता। जिस का दिमाग़ 16 वीं सदी का नहीं बल्कि भविष्य की 21 वीं सदी की सोच रखता है।

उतावले मोदी समर्थकों ने ऐक वोट मोदी जी को दे कर जो ‘अहसान’ किया है उस के ऐवज़ में मोदी जी कोई जादुई-चमत्कार नहीं कर सकते। अगर उन्हें अपने किये पर अफसोस हो रहा है तो फिर से सोनिया-मनमोहन, मायावती-मुलायम या केजरीवाल में से किसी को भी बुला लें। मगर याद रहै। मोदी सरकार से अच्छी देश को समर्पित सरकार अगले भविष्य में दोबारा नहीं आये गी।

हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है।

बडी मुद्दत से होता है चमन में दीदावर पैदा।

थोडा संयम और धैर्य रखो – अपनी और देश की किस्मत को लात मत मारो। सरकार को हर वक्त कोसते रहने से कोई देश प्रगति नहीं कर सकता। प्रगति सरकार के साथ सहयोग करने से होती है।

अगर आप इन विचारों से सहमत हैं तो केवल लाईक करने या ‘सही लिखा है’ कहने के बजाये इसे शेयर करें और फैलायें। अगर असहमत हैं तो अपने सुझाव और कारण अवश्य लिखें ताकि मुझे भी अपनी सोच को सुधारने का अवसर मिले।

चांद शर्मा


हरियाणा की मर्दानी लडकियों ने ऐक बार तो सभी पुरुषों की रीढ़ की हड्डी तक को झिंझोड के रख दिया है। हरियाणा सरकार ने छानबीन और प्रशासनिक सुधार करने से पहले उन्हें पुरस्करित कर के युवतियों को अपने आर्थिक पैरों पर खडे होने के लिये ऐक नयी दिशा भी प्रदान कर दी है। जनता का पुलिस प्रशासन और न्यायलयों की क्षमता पर से विशवास गुरुत्व आकर्ष्ण से भी ज्यादा तेजी के साथ नीचे गिरता जा रहा था लेकिन अब उस विशवास की पुनर्स्थापित करने की जरूरत ही नहीं रही।

नारी स्शक्तिकरण

जंगल न्याय रोज मर्रा की बात हो गयी है। कहीं भी दो चार युवतियां ऐक जुट हो कर किसी भी राहचलते मनचलों को ना सिर्फ घेर कर पीट सकती हैं बल्कि उन से वसूली कर सकती हैं। सभी पुरुष रेप और यौन शोशष्ण के आरोपी हो सकते हैं क्योंकि महिलाओं की तरफ झुकी हुयी कानून की शक्ति अब महिलाओं के पास है । बस ऐफ़ आई आर ही काफ़ी है। किसी छान बीन की ज़रूरत नहीं। महिलायें 5 वर्ष से 95 वर्ष तक के किसी भी पुरुष को आरोपित कर के आजीवन कारावास दिलवा सकती हैं। मुकदमें का फैसला आरोपित पुरुष के अगले जन्म से पहले नहीं आये गा और अपीलों में उन के भी दो तीन जन्म और निकल जायें गे।

अभी तो महिला आरक्षण बाकी है। अगर यही क्रम चलता रहा तो मृत पुरुष का दाह संस्कार करवाने से पहले पुलिस से प्रमाण पत्र लेना भी अनिवार्य हो जाये गा कि मृत के खिलाफ मृत्यु से ऐक घन्टा पूर्व तक यौन शोशण की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुयी। प्रमाण पत्र प्रस्तुत ना कर सकने की अवस्था में मृत के शरीर की फोरंसिक जांच होनी ज़रूरी हो जाये गी कि यौन अपराध के कोई सबूत उस के शरीर पर नहीं मिले – तभी दाह संस्कार हो सके गा। इस लिये पुरुषो को चाहिये कि अपनी सुरक्षा के लिये आम-आदमी सुरक्षा दल बनायें। 

कानूनी वर्गीकरण

समान आचार संहिता तो दूर, जिस तेजी से हमारे राजनेता समाज में लिंग-भेद पर भी समाज में कानूनी वर्गीकरण कर के आये दिन नये नये कानून बनाते जा रहै हैं और हमारी अदालतें आंखें मूंदे उन की वैधता को मंजूरी देती जा रही हैं उस अवस्था में अब जरूरी हो गया है कि पुरुषों के बारें में भी कुछ विशेष कानून और व्यवस्थायें होनी चाहियें।

पुरुषों को चाहिये कि अपने इलाके के राजनेता से पुरुष रक्षा कानून, दलित पुरुष रक्षा कानून तथा केन्द्र और हर राज्य में पुरुष आयोग, पुरुष बस सेवा, पुरुष थाने आदि की नयीं मांगे करनी शुरु कर दें।

हरियाणा की महिलायों से प्रेरणा पा कर अब युवतियां जीन्स पर कोई रोक स्वीकार नहीं करें गी क्यों कि बेल्ट कारगर साबित हुयी है। ‘घर की चार दिवारी में कैद पुराने जमाने की महिलायें’ सोने चाँदी या किसी अन्य धातु की जंजीरों में बंधी रहती थीं। हाथ पाँव में मोटे मोटे कडे पहनती थीं ताकि बिना आवाज किये कहीं भाग ना सकें लेकिन अब यवतियां चाव के साथ उन्हीं भारी कडों और जंजीरों को अपनी रक्षा के लिये और पुरुषों के दांत तोडने के लिये अपने आप पहनने लगें गी।

पुरुष-रक्षा के उपाय

जबतक पुरुषों की रक्षा के लिये विशेष उपाय कार्यरत नहीं हो जाते, पुरुषों को अपनी रक्षा के लिये नीचे लिखे उपाय अपने आप ही अपना लेने चाहियेः-

  • अपने अपने इलाकों में राहुल सुरक्षा ब्रिगेड या केजरीवाल सुरक्षा केन्द्र गठित करें।
  • अगर कहीं भी 4-5 समार्ट लडकियों के संदिग्ध हालत में घूमते देखें तो पुलिस, आम आदमी सुरक्षा दल को तुरन्त सम्पर्क करें।
  • अकेले निर्जन पार्कों, सडकों, लाईबरेरियों, होटलों आदि स्थानों पर ना जायें।
  • शाम को अन्धेरा होने से पहले घर वापिस आ जायें।
  • रात को भोजन के बाद घर से अकेले बाहर नहीं निकलें। अपनी सुरक्षा के लिये जूडो-कराटे आदि सीखें, और नित्य व्यायाम करें।
  • अपने कपडों में गुप्त तरीके से छुपा कर ऐक फुट लम्बी सुरक्षा-झाडू हमेशा अपने साथ रखें।
  • दफ्तर के बाद कभी भी ओवर-टाईम नहीं करें।
  • अकेले किसी टायलेट वगैरा में भी नहीं जायेँ।
  • भीड वाले इलाकों में सुरक्षित जाने आने के लिये हमेशा अपने शरीर को पूरा ढक कर रखें और स्त्रियों के से हाव भाव भी अपनायें।
  • जहाँ कहीं भी 3-4 महिलायें दिखाई पडें तो तुरन्त किसी सुरक्षित स्थान पर तेज़ी से चले जायें।

याद रखिये

पुरुषों को विरोध करना है तो हरियाणा की पूजा और आरती के बजाये पहले उन कानूनों का करो जो इन्दिरा गांधी से ले कर सोनियां तक कांग्रेसी सरकारों ने अपने वोट बैंक के लिये दलितों, महिलाओ और अल्प-संख्यकों आदि का संरक्षण करने के बहाने से बनाये और अभी भी लागू हो रहै हैं। किसी भी देश में इस तरह के वाहियात कानून नहीं हैं कि खाली रिपोर्ट के आधार पर आरोपी को हवालात में बन्द कर दो और उस की जमानत भी ना हो। कानून के सामने महिला हो या परुष, दोनों के लिये अगर बराबरी है तो कानून भी ऐक जैसे होने चाहियें।

अब तो महिलाओं, दलितों और अल्प-संख्यकों को नौकरी या किसी भी तरह की मदद देने से पहले लोग दस बार सोच कर इनकार ही करें गे। बुद्धिमानी भी इसी में है कि सिर दर्द क्यों लिया जाये।

महिला, दलित या अल्प-संख्यक आयोगों का भी कोई काम नहीं जो अपनी सुविधा और पसंद के अनुसार दखल देते हैं। केवल पुलिस प्रशामन और कोर्ट सक्षम होने चाहियें।

मीडिया का काम केवल खबर देने तक का होना चाहिये उस पर बहस या राय देने का नहीं। अगर खबर तथ्यों पर नहीं तो मीडिया की भी कानून के सामने अपराधी जैसी जवाबदारी होनी चाहिये।

हमारे मीडिया को सनसनीखेज़ भाषा में बहस करने और ढोल पीटने के लिये ऐक मुद्दा और मिल चुका है – “ सावधानी हटी तो पिटाई घटी – ऐफ आई आर हुयी तो… सोच लीजिये…बस सोचते ही रह जाओ गे। बिना पिटे जीना है तो जाग जाईये – चैन से रहना है तो कहीं भाग जाईये। ”

चांद शर्मा


बातें कुछ कडवी ज़रूर हैं परन्तु सच्चाई ऐसी ही होती है।

आज से लगभग 350 वर्ष पहले मुसलमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दु गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन्हें इनसाफ़ दिलाने के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। मगर इनसाफ़ नहीं मिला। 350 वर्ष बाद आज भी कशमीरी हिन्दुओं की हालत वहीं की वहीं है और वह शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर-उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दुओं ने पलायन करने के इलावा अपने बचाव के लिये और क्या सीखा ?

भारत विभाजन के बाद सरदार पटेल ने अपनी सूझ-बूझ से लगभग 628 रियास्तों का भारत में विलय करवाया किन्तु जब कशमीर की बारी आयी तो नेहरू ने शैख़ अब्दुल्ला से अपनी यारी निभाने के लिये सरदार पटेल के किये-कराये पर पानी फेर दिया और भारत की झोली में एक ऐसा काँटा डाल दिया जो आजतक हमारे वीर सिपाहियों का लगातार खून ही पी रहा है। विभाजन पश्चात अगर शरर्णाथी हिन्दु – सिक्खों को कशमीर में बसने दिया होता तो आज कशमीरी हिन्दु मारे मारे इधर-उधर नहीं भटकते, किन्तु नेहरू के मुस्लिम प्रेम और शैख़ अब्दुल्ला से वचन-बध्दता ने ऐसा नहीं करने दिया।

सैंकड़ों वर्षों की ग़ुलामी के बाद हमारा प्राचीन भारत जब स्वतन्त्र हुआ – तब नेहरु जी को विचार आया कि इतने महान और प्राचीन देश का कोई ‘पिता’ भी तो होना चाहिये। नवजात पाकिस्तान ने तो जिन्नाह को अपना ‘क़ायदे-आज़म’ नियुक्त कर दिया, अतः अपने आप को दूरदर्शी समझने वाले नेहरू जी ने भी तपाक से गाँधी जी को इस प्राचीन देश का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा दिया। बीसवीं शताब्दी में ‘पिता’ प्राप्त कर लेने का अर्थ था कि प्राचीन होने के बावजूद भी भारत, इसराईल, पाकिस्तान या बंग्लादेश की तरह एक राष्ट्रीयता हीन देश था।

राष्ट्रपिता के ‘जन्म’ से पहले अगर भारत का कोई राष्ट्रीय अस्तीत्व ही नहीं था तो हम किस आधार पर अपने देश के लिये विश्व-गुरू होने का दावा करते रहे हैं ? हमारी प्राचीन सभ्यता के जन्मदाता फिर कौन थे ? क्यों हम ने बीसवीं शताब्दी के गाँधी जी को अपना राष्ट्रपिता मान कर अपने-आप ही अपनी प्राचीन सभ्यता से नाता तोड़ लिया? इस से बडी मूर्खता और क्या हो सकती थी?

राष्ट्र को पिता मिल जाने के बाद फिर जरूरत पडी एक राष्ट्रगान की। दूरदर्शी नेहरू जी ने मुसलमानों की नाराज़गी के भय से वन्देमात्रम् को त्याग कर टैगोर रचित ‘जन गन मन अधिनायक जय है ’ को अपना राष्ट्रगान भी चुन लिया। दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ वन्देमात्रम् स्वतन्त्रता संग्राम में स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रेरित करता रहा वहीं ‘जन गन मन ’ मौलिक तौर पर इंगलैन्ड के सम्राट की अगवाई करने के लिये मोती लाल नेहरू ने टैगोर से लिखवाया था। इस गान में केवल उन्हीं प्रदेशों का नाम है जो सन् 1919 में इंगलैन्ड के सम्राट के ग़ुलाम थे। यहाँ यह भी बताना उचित हो गा कि ‘टैगोर’ शब्द अंग्रेजों को प्रिय था इस लिये रोबिन्द्र नाथ ठाकुर को टैगोर कहा जाता है। आज भी इस राष्ट्रगान का ‘अर्थ’ कितने भारतीय समझते हैं यह आप स्वयं अपने ही दिल से पूछ लीजिये।

विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया था। अपने प्रियजनों को कटते और अपने घरों को अपने सामने लुटते देख कर जब लाखों हिन्दु सिक्ख भारत आये तो उन के आँसू पोंछने के बजाय ‘राष्ट्रपिता’ ने उन्हें फटकारा कि वह ‘पाकिस्तान में ही क्यों नही रहे। वहां रहते हुये अगर वह मर भी जाते तो भी उन के लिये यह संतोष की बात होती कि वह अपने ही मुसलमान भाईयों के हाथों से ही मारे जाते ’।

मुस्लिम प्रेम से भरी ऐसी अद्भुत सलाह कोई ‘महात्मा’ ही दे सकता था कोई सामान्य समझबूझ वाला आदमी तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। पाकिस्तान और मुस्लमानों के प्रेम में लिप्त हमारे राष्ट्रपिता ने जिस दिन ‘हे-राम’ कह कर अन्तिम सांस ली तो उसी दिन को नेहरू जी ने भारत का ‘शहीद-दिवस’ घोषित करवा दिया। वैसे तो भगत सिहं, सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे कितने ही महापरुषों ने आज़ादी के लिये अपने प्राणों की बलि दी थी परन्तु वह सभी राष्ट्रपिता की तरह मुस्लिम प्रेमी नहीं थे, अतः इस सम्मान से वंचित रहे ! उन्हें ‘आतंकी’ का दर्जा दिया जाता था। राष्ट्रपिता और महान शहीद का सम्मान करने के लिये अब हर हिन्दु का यही ‘राष्ट्र-धर्म’ रह गया है कि वह अपना सर्वस्व दाव पर लगा कर मुस्लमानों को हर प्रकार से खुश रखे।

भारत को पुनः खण्डित करने की प्रतिक्रिया नेहरू जी ने अपना पद सम्भालते ही शुरू कर दी थी। भाषा के आधार पर देश को बाँटा गया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो घोषित करवा दिया लेकिन सभी प्रान्तों को छूट भी दे दी कि जब तक चाहें सरकारी काम काज अंग्रेज़ी में करते रहें। शिक्षा का माध्यम प्रान्तों की मन मर्जी पर छोड़ दिया गया। फलस्वरूप कई प्रान्तों ने हिन्दी को नकार कर केवल प्रान्तीय भाषा और अंग्रेज़ी भाषा को ही प्रोत्साहन दिया और हिन्दी आज उर्दू भाषा से भी पीछे खड़ी है क्योंकि अब मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण उर्दू को विशेष प्रोत्साहन दिया जाये गा।

भारत वासियों ने आज़ादी इस लिये मांगी थी कि अपने देश को अपनी संस्कृति के अनुसार शासित कर सकें। सदियों की ग़ुलामी के कारण अपनी बिखर चुकी संस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिये यह आवश्यक था कि अपने प्राचीन ग्रन्थों को पाठ्यक्रम में शामिल कर के उन का आंकलन किया जाता। वैज्ञानिक सुविधायें प्रदान करवा के उन का मूल्यांकन करवाया गया होता, मगर नेहरू जी के आदेशानुसार उन मौलिक विध्या ग्रंथों को धर्म निर्रपेक्षता के नाम पर पाठ्यक्रमों से खारिज ही कर दिया गया।

कशमीर विवाद के अतिरिक्त नेहरू की अन्य भूल तिब्बत को चीन के हवाले करना था। देश के सभी वरिष्ट नेताओं की सलाह को अनसुना कर के उन्हों ने चीन की सीमा को भारत का माथे पर जड़ दिया। चीन के अतिक्रमण के बारे में देश को भ्रामित करते रहे। जब पानी सिर से ऊपर निकल गया तो अपनी सैन्य क्षमता परखे बिना देश को चीन के साथ युध्द में झोंक दिया और सैनिकों को अपने जीवन के साथ मातृभूमि और सम्मान भी बलिदान करना पड़ा। भारत सरकार ने यह जानने के लिये कि हमारे देश की ऐसी दुर्गति के लिये कौन ज़िम्मेदार था ब्रिटिश लेफटीनेन्ट जनरल हेन्डरसन ब्रुक्स से जो जाँच करवायी थी उस की रिपोर्ट नेहरू जी के समय से ही आज तक प्रकाशित नहीं की गयी।

1962 की पराजय के बाद ‘ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी’ गीत को सुन कर वीर जवाहर रो पडे थे इस लिये हम भी आये दिन यही गीत सुबक सुबक कर गाते हैं और शहीदों के परिवारों का मनोबल ऊँचा करते हैं। काश वीर जवाहर आजाद हिन्द फौज के इस गीत को कभी गाते तो हमारे राष्ट्र का मनोबल कभी नीचे ना गिरता –

कदम कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा, यह जिन्दगी है कौम की उसे कौम पर लुटाये जा।

पंडित नेहरू ने भारत इतिहास के  स्वर्ण-युग को “गोबर युग ” कह कर नकार दिया था। वह स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि ‘मैं विचारों से अंग्रेज़, रहन-सहन से मुसलिम और आकस्माक दु्र्घना से ही हिन्दु हूं’। काश यह आकस्माकी दु्र्घना ना हुई होती तो कितना अच्छा होता। इस बाल-दिवस पर नेहरू की जगह ऐक पटेल जैसा बालक और पैदा हो गया होता तो यह देश सुरक्षित होता।

आज़ादी के बाद देश में काँग्रेस बनाम नेहरू परिवार का ही शासन रहा है, इस लिये जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों का सही आंकलन नहीं किया गया। आने वाली पीढीयां जब भी उन की करतूतों का मूल्यांकन करें गी तो उन की तुलना तुग़लक वंश के सर्वाधिक पढे-लिखे सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक से अवश्य करें गी और नेहरू की याद के साथ भी वही सलूक किया जाये गा जो सद्दाम हुसैन के साथ किया गया थी – तभी भारत के इतिहास में नेहरू जी को उनका यत्थेष्ट स्थान प्राप्त होगा।

चाँद शर्मा


राजधानी के रामलीला मैदान में 4 जून 2011 को ऐक रावण लीला हुयी थी जिस के कारण ऐक निहत्थी महिला राजबाला का देहान्त हो गया था। स्वामी रामदेव के योग-शिविर में उस रात निद्रित अवस्था में निहत्थे स्त्री-पुरुषों, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों पर कमिश्नर दिल्ली पुलिस की देख रेख में लाठी चार्ज किया गया था। वह घटना इतनी अमानवीय थी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय की आत्मा भी उन रावणों के अत्याचार से अपने-आप सजग हो गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने तब तत्कालीन सरकार को बरबर्ता के दोषियों के खिलाफ कारवाई करने के आदेश दिये थे। उस के बाद थाने में ‘अज्ञात’ दोषियों के नाम पर ऐफ़ आई आर दाखिल की गयी थी मगर उस के बाद से आज तक क्या हुआ?…सभी को सांप सूंघ गया? और सभी गहरी नीन्द में आज तक क्यों सो रहै हैं?

न्यायपालिका

आम तौर पर हमारे न्यायाधीश अपनी अवमानना के प्रति सजग रहते हैं और किसी को भी फटकार लगाने से नहीं चूकते। परन्तु हैरानी की बात यह है कि जब स्वयं उच्चतम न्यायालय ने इस घटना का कोग्निजेंस लेकर सरकार को निर्देश दिये थे और उन आदेशों की आज तक अनदेखी करी जा रही है तो इस मामले को गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया? यदि न्यायालय के आदेश की अनदेखी इस तरह होने दी जाये गी तो जनता का विशवास न्यायपालिका में कैसे रहै गा? जनता में तो यही संदेश जाये गा कि शायद न्ययपालिका को भी राजनेताओं से और उच्च अधिकारियों से अपमानित होने की आदत हो चुकी है।

विविध आयोग

हमारे देश में कई तरह के आयोग हैं जिन के अध्यक्ष राजनेता या उन के रिश्तेदार होते हैं। यह आयोग बच्चों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिये बने हैं। कभी-कभार यह आयोग पहुंच वाले आरोपियों के हितों का संरक्षण करने कि लिये सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ हस्तक्षेप करने के लिये मैदान में भी उतरते हैं। इशरतजहां, सौहराबूद्दीन, जाकिया जाफरी को इनसाफ दिलाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं परन्तु बेचारी राजबाला जैसी महिलाओं के साथ जुल्म या किसी मासूम के साथ बलात्कार भी हो जाये तो इन आयोगों को नीन्द से जगाना क्यों पडता है? साधारण जनता के मामलों से उन्हें कोई सरोकार क्यों नहीं होता? अगर होता, तो राजबाला के केस में भी अब तक कई पुलिसकर्मी जेलों मे जाकर वहीं से रिटायर भी हो चुके होते। आयोगों से कोई उम्मीद लगाना भैंसे का दूध दोहने जैसी बात है।

मीडिया

अगर किसी मीडिया – कर्मी को पुलिस या किसी राबर्ट वाड्रा जैसे व्यक्ति के कारण छोटी-मोटी चोट लग जाये तो हमारा मीडिया दिन-रात उसी मुद्दे पर विधवा–विलाप करता रहता है, लेकिन इस घटना पर मीडिया पिछले तीन वर्षों से क्यों चुप्पी साधे बैठा रहा है? कुछ गिने-चुने मिडियाई पेशेवर बहस करने वाले प्रवक्ता संजय-दत्त की पैरोल, सचिन को भारत-रत्न बनाने की सिफारिश, तरुण तेजपाल की बेगुनाही आदि के बारे में विशेष बहस करते हैं उन्हों ने दिल्ली की जनता के खिलाफ़ इस अन्याय पर क्यों बहस नहीं करी ? अनदेखी का यह मुद्दा क्या इनवेस्टीगेटिव जनर्लिज्म के कार्य क्षेत्र में नहीं आता? मीडिया स्टिंग-आप्रेशन या जांच पडताल से क्या पता नहीं करवा सका कि इस ऐफ़ आई आर पर क्या तफ्तीश करी गयी है? क्या इस केस में अब कोई सनसनी या आर्थिक लाभ नहीं?

राजनेता

हमारे राजनेता अकसर भडकाऊ भाषणों से जनता को हिंसा और तोडफोड के लिये उकसाते हैं, निषेध आज्ञाओं का उलंघन करवाते हैं, और अपनी गिरफ्तारी के फोटो निकलवाने के तुरन्त बाद जमानत पर रिहा हो कर अपने घरों को भी लौट जाते हैं। बस, इस से आगे वह अदृष्य हो जाते हैं। अगले चुनावों तक उन का कुछ पता नहीं चलता। इस घटना-स्थल में रहने वाली जनता की सेवा का जिम्मा आजकल जिन नेताओं के पास है वह दिल्ली में सरकार बनाने के चक्कर में व्यस्त हैं। चुनाव के समय ही जनता में दिखाई पडें गे। वैसे नयी दिल्ली विधान सभा क्षेत्र के विधायक केजरीवाल हैं। उन से अपेक्षा करनी चाहिये कि वह इस घटना की स्टेटस रिपोर्ट जनता के सामने रखें।

अपराधी कौन – ?

उस घटना को बीते आज तीन वर्ष पांच महीने बीत चुके हैं। लेकिन राजबाला की आत्मा को आज भी इन्तिजार है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद भी इस देश में चेतना आये गी। क्या दिल्ली पुलिस को आज तक भी यह पता नहीं चला कि वह ‘अज्ञात’ लोग कौन थे जिन के विरुद्ध रिपोर्ट लिखी गयी थी? उस थाने के प्रभारी, उस इलाके में जनता के प्रतिनिधि – पार्षद, विधायक, सासंद ने क्या यह जानने की कोशिश करी कि ऐफ़ आई आर पर अभी तक क्या कारवाई करी गयी है? वह ‘अज्ञात’ अपराधी अब तक क्यों नहीं पकडे या पहचाने गये? कौन किस से पूछ-ताछ करने गया था?

राजबाला का परिवार, स्वामी रामदेव, तत्कालीन मुख्य मन्त्री शीला दिक्षित, उस काल की सर्वे-सर्वा सोनियां गांधी, प्रधान मंत्री मनमोहन सिहं, गृह मंत्री शिन्दे, सलाहकार कपिल सिब्बल, चिदाम्बरम और कई अन्य छोटे-बडे लोग, सभी दिल्ली में तो रहते रहै हैं। क्या किसी को भी नहीं पता कि देश की राजधानी में इतना बडा कांड, जिस ने देश को विदेशों में भी शर्म-सार किया था, जिस काण्ड ने उच्चतम न्यायालय की आत्मा को भी झिंझोड दिया था, वह किन ‘अज्ञात’ अपराधियों ने करा था? वह आज तक पकडे क्यों नहीं गये? क्या वह ऐफ़ आई आर अभी तक फाईलों में जिन्दा दफ़न है या मर चुकी है?

सरकार की गुड-गवर्नेंस

इस रावण लीला के समय केन्द्र और दिल्ली, दोनो जगह काँग्रेस की सरकारें थीं। इसलिये उस समय के प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री को जबाब देना चाहिये कि पिछले तीन वर्षों में ‘अज्ञात’ अपराधियों की पहचान अब तक क्यों नहीं करी गयी? उन्हें पता था कि दिल्ली में स्वामी रामदेव योग शिविर करने वाले थे जिस में काले धन का मुद्दा भी उठाया जाये गा। जब स्वामी रामदेव दिल्ली आये थे तो उन का स्वागत केन्द्र सरकार के वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी, कानून तथा मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल तथा अन्य मन्त्रियों ने किया था। उन के बीच में बातचीत के कई दौर भी चले थे। फिर क्या कारण थे कि अचानक रात को सोते हुये निहत्थे लोगों पर ‘अज्ञात’ लोगों ने लाठिया बरसानी शुरु कर दीं थीं?

देश की राजधानी में इतने मन्त्रियों के रहते कोई साधारण पुलिस अधिकारी इस तरह का निर्णय नहीं ले सकता था। केन्द्र और दिल्ली सरकार दोनो का यह भी पता था कि उस रात स्वामी रामदेव को गिरफ्तार कर के किसी अज्ञात स्थान पर भेजा जाये गा जिस के लिये ऐक हेलिकापटर पहले से ही सफदरजंग हवाई अड्डे पर तैनात था। अतः अगर वरिष्ठ केन्द्रीय मन्त्रियों से पूछा गया होता तो अब तक ‘अज्ञात’ अपराधियों का पता देश वासियों को लग जाना था। क्या हम यह मान लें कि हमारी पुलिस इतनी गयी गुज़री है कि वह इतनी देर तक यह पता नहीं लगा सकी? क्या हमारे देश में गुड-गवर्नेंस के यही मापदण्ड हैं? नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये अभी पांच महीने ही हुये हैं इस लिये इन्तिजार करना पडेगा कि वह इस विषय में क्या करती है।

स्वामी रामदेव ने तो चाण्क्य की तरह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का अनथक प्रयास किया है और काँग्रेसी सत्ता को मिटाने में नरेन्द्र मोदी की भरपूर कोशिश करी है। अब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का उत्तरदाईत्व है कि 2011 की रावण-लीला के दोषियों के साथ क्या कानूनी कारवाई करी जाये ताकि भारत स्वाभिमान के योगऋषि रामदेव को न्याय दिलाया जा सके। आज कल दिल्ली की सातों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं जो इस केस को निष्कर्ष तक लेजाने के लिये प्रयत्नशील होने चाहियें।

अपनी मृत-आत्मा को पुनर्जीवन दो

सहनशीलता, अहिंसा, सदभावना, धर्म निर्पेक्षता आदि शब्दों के पीछे भारत के नागरिक अपनी लाचारी, अकर्मण्यता और कायरपने को छुपाते रहते हैं। उन के राष्ट्र नायक-नायिकाओं की श्रेणी में आजकल खान-त्रिमूर्ति, तेन्दूलकर, धोनी, और सनी लियोन जैसे नाम हैं जिन के मापदण्डों पर राजबाला जैसी घरेलू महिलाओं का कोई महत्व नहीं। इसलिये भारत में अगले दो सौ वर्षों तक अब कोई युवा-युवती भगत सिहं या लक्ष्मी बाई नहीं बने सकते क्योंकि हमारे पास अब उस तरह का डी ऐन ऐ ही नहीं बचा।

वैसे तो सभी राजनेताओं, मीडिया वालों को, और तो और काँग्रेसियों को भी काला धन की स्वदेश वापिसी में देरी के कारण नीन्द नहीं आ रही और वह नरेन्द्र मोदी को लापरवाही के ताने देते रहते हैं, लेकिन जिस महिला ने कालेधन की खोज के लिये अपनी जान की बलि दी थी उस को न्याय दिलवाने के लिये कोई सामने नहीं आया।

इस वक्त यह सब बातें मामूली दिखाई पडती हैं लेकिन सोचा जाये तो मामूली नहीं। जब हम व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं तो सोचना होगा कि वह कौन ‘अज्ञात’ लोग हैं जो पूरे तन्त्र पर हमैशा हावी रहते हैं। जिन के कारण राजबाला को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद भी इनसाफ नहीं मिलता और सुप्रीम कोर्ट भी अवमानना को इस तरह क्यों सह लेती है। राजबाला तो हमैशा के लिये इस भ्रष्ट तंत्र के मूहं पर कालिख पोत कर जा चुकी हैं लेकिन अगली बार आप में से किसी के घर की सदस्या भी राजबाला हो सकती है – यह समझने की जरूरत हम सभी को है।

अगर आप की आत्मा जाग रही है तो इस लेख को इतना शेयर करें कि मृत राजबाला की चीखें बहरे लोगों को भी चुनाव के समय तो सुनाई दे जायें। हम यह गीत देश भक्ति से ज्यादा नेहरू भक्ति के कारण गाते रहते हैं जिसे कभी दिल से भी गाना चाहिये – इस गीत को चुनाव का मुद्दा बना दो –

जो शहीद हुये हैं उन की ज़रा याद करो कुरबानी।

चाँद शर्मा

 


आजकल हम लोग सफाई-अभियान में जुटे हैं। मन्त्रियों ने हाथ में झाडू पकडे तो सफाई के प्रति जागृति आ गयी। लेकिन मन्त्रियों का हर रोज सडक पर झाडू से सफाई में लगे रहना समस्या का समाधान नहीं। कुछ दिनों के बाद यह परिक्रिया केवल ऐक खेल-तमाशा बन कर रह जाये गी। सफाई का काम वास्तव में उन्हीं लोगों को करना चाहिये जो इस के लिये नियुक्त हैं। विभागों में उन का अन्य स्थानों पर दुर्प्योग नहीं किया जाना चाहिये और वह अपना काम ठीक तरह से करते हैं इस की कडी जवाबदारी रहनी जरूरी है।

आस्थाओं के बहाने गन्दगी

नागरिकों की निजि जिम्मेदारी है कि वह जगह जगह गन्दगी ना फैलायें। हमारी नदियां और जल स्त्रोत्र इस लिये गन्दे है कि हम हर रोज आस्था के नाम से नदियों की आरती कर के फूलों से भरी टोकरियां नदियों में बहा देते हैं। इस के इलावा और कई तरहों से हम स्वयं ही जल को गन्दा करने के काम अन्धविशवास से करते चले आ रहै हैं। हमारे अन-पढ पुजारी लोगों को फूल अनाज और दूध वगैरा पानी में बहा देने की सलाह देते रहते हैं ताकि मृतकों की आत्मा को शान्ति मिल सके चाहे जीवित लोग गन्दगी पीते रहैं। अगर आस्थायें गन्दगी फैलाने का कारण बन जायें तो उन का कोई महत्व नहीं रहता। हर रोज आरती के बहाने नदियों में फूल बहा कर नदियों को गन्दगी भेन्ट करते हैं, नदियों को साफ नहीं करते। नदी के प्रति श्रद्धा दिखाने के अन्य साफं रास्ते भी अपनाये जा सकते हैं।

फूल-चोरी

जब कभी आप सुबह सैर के लिये निकलते हैं तो देखा होगा कि कुछ लोग दूसरों के आंगन से या सार्वजनिक पार्कों से फूल चोरी करते हैं। दुसरे लोगों की आहट से ही चौंक जाते हैं और इधर उघर देख कर, और सम्भल कर फिर फूल-चोरी में लग जाते हैं। वह सफेदपोश चोर ताजा हवा के बजाये, अपना दिन ऐक कमीनी हरकत से शुरु करते हैं। अपने घर में लौट कर या रास्ते में ही किसी मन्दिर में जा कर चोरी किये फूलों को भगवान की मूर्ति पर चढा देते हैं और बदले में अपने लिये भगवान से कुछ ना कुछ मांगते रहते हैं।

सोचने की बात है जो महा शक्ति इतनी तरह के फूलों को पैदा कर सकती है क्या वह उन फूलचोरों की हरकत से संतुष्ट हो जाये गी ? वास्तव में यह फूलचोर सिर्फ चोरी ही नहीं करते बल्कि फूलों की भ्रूण हत्या भी करते हैं। वह फूलों को खिलने और खुशबू देने से पहले ही तोड लेते हैं। समय से पहले तोडे गये फूलों के बीज भी नष्ट हो जाते हैं। अगर भगवान को फूल अर्पण ही करने हैं तो अपने घरों में फूल उगायें और उन्हें पौधे पर ही खिलने दें। भगवान जहाँ कहीं भी हों गे उन तक फूलों की खुशबू और आप की मेहनत की रिपोर्ट पहुँच ही जाये गी।

आप ने यह भी देखा होगा कि कई लोग भगवान पर चढाये गये फूलों, फलों और कई तरह के अनाजों को नदियों, नहरों और तालाबों आदि पानी में बहा देते हैं जो साफ कर के पीने के लिये इस्तेमाल होता है। इस में हवन तथा अस्थियों की राख और कई तरह की बेकार चीजें भी डाली जाती है।

विदेशों में जल स्त्रोत्रों को गन्दा करना कानूनी अपराध है लेकिन भारतवासी यही काम लोग पण्डितों के बहकावे में आ कर स्वेछा से करते हैं। अगर सुखे और इस्तेमाल किये गये फूलों को  फैला दिया जाये जहाँ उन के बीज फिर से उग जायें या कम से कम खाद ही बन जायें तो क्या यह उत्तम विकल्प नहीं होगा ? यही बात फैंके गये अनाजों के बारे में भी लागू होती है।

आस्था का प्रदूष्ण

कई सडकों पर चाय आदि बेचनेवाले कई दुकानदार ऐक कप में थोडा दूध या चाय बनाकर सडक पर बिखेर देते हैं और मन में सोचते हैं कि उन्हों ने वह भगवान को अर्पित कर दी। वास्तव में उस घटिया स्तर की वस्तु को कोई जानवर भी नहीं पिये गा। निश्चय जानिये हृदय, आदर और स्वछता से अरपित करी गई चाय को भगवान किसी जानवर के रूप में आ कर जरूर स्वीकार कर लें गे। क्या यह अच्छा नहीं कि उस के बदले आप हर रोज जानवरों के पीने के लिये पानी की व्यवस्था कर दें। सिवाय पालतु जानवरों के आज कल दूसरे जानवरों को गर्मी में नहाना तो दूर पीने तक का पानी भी नहीं मिलता।

खुशी की गुण्डागर्दी

अपने बच्चों को खुश रखने के लिये माता पिता उन्हें दिवाली पर पटाखे और होली पर रंग खरीद कर देते हैं। बच्चे गुबारों में पानी और रंग भर कर और पटाखों को चला कर सडकों पर आते जाते लोगों पर फैंकते है। किसी की आँख में लगे या सिर पर, किसी का ऐक्सीडेन्ट होजाये तोभी माता पिता को कोई परवाह नहीं रहती क्यो कि उस वक्त बच्चों पर किसी का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वह अपने माता पिता की तहजीब का प्रदर्शन ही सडक पर कर रहै होते हैं। क्या यह न्याय संगत नहीं होगा कि जो माता पिता अपने बच्चों स् इस प्रकार के घातक कुकर्म करवाते हैं वह समाज के दुशमन हैं। बच्चों के बदले उन्हें जेल की सलाखों के पीछे डालना चाहिये।

अभियान नहीं पहचान

इन छोटी छोटी मगर दूरगामी बातों को आदत में डाल लें गे तो दिखावटी सफाई – अभियानों की जरूरत कम हो जाये गी। विदेशों में नाटक बाजी के बजाये यह बातें नागरिकों की आदत में शामिल हो चुकी हैं। सफाई का जितना महत्व हिन्दू-धर्म में है उतना और किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हमारा हर त्यौहार घर और शरीर की सफाई से शुरु होता था, लेकिन आजकल गन्दगी फैला कर खत्म होता है। हमारी बातें विदेशियों ने अपना ली और हम केवल विश्व-गुरु का स्वांग कर के उन लोगों की गन्दगी को अब गर्व से चख रहै हैं।

विदेशों की नकल ही करनी है तो सफाई को नौटंकी के बजाये आदत बनाना चाहिये। यह विदेशी नकल नहीं हमारी अपनी संस्कृति है जिस पर अब विदेशी लेबल चढा हुआ है।

चाँद शर्मा

 


कैलाश सत्यार्थी को बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने के लिये नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो अचानक सभी भारतीयों का दिल गर्व से भर गया। मुझे भी यह मानने में कोई झिझक नहीं कि मेरा दिल शर्म से भर गया। मैं ने इस महा पुरुष का नाम ही पहली बार सुना है। शायद मेरे जैसे अज्ञानी भारत में ऐक दो तो और भी मिल जाये गे।

बचपन से आज तक मैं तो यही सुनता रहा हूँ कि भारत में बच्चों से प्यार करने वाले का नाम जाहरलाल नेहरू था जिन का जन्मदिन बाल-दिवस के तौर पर बच्चों से हम लोग मनवाते रहते हैं।

  • बच्चों से प्यार करने वाले अन्य महा पुरुष का नाम स्वामी अग्निवेश है जो बन्धुआ मजदूरी करते हुये बच्चों की नौकरी लड-झगड कर छुडवा तो देते हैं लेकिन फोटो खिचने और अखबार में खबर छपने के बाद फिर उन बच्चों के खाने-पीने और शिक्षा-दीक्षा का क्या होता है और वह आगे जीवन में क्या करते हैं यह कोई नहीं जानता।
  • ऐक और ग्रौन-अप बच्चे का नाम भी बाल-संरक्षण जुडा हुआ है वह मास्टर पप्पू उर्फ राहुल गाँधी का है। उन्हों ने बच्चों को भोजन के साथ शिक्षा का अधिकार भी दिलवा दिया था। वह अधिकार क्या हैं, और किधर से प्राप्त हो सकता है यह आप सडक पर किसी भी भीख मांगते बच्चे को बुला कर पूछ सकते हैं।
  • मीडिया में आये दिन पढने को मिलता है कि अमुक स्थान पर ऐक बच्चा खुले बोर वेल में गिर गया था जिसे निकालने के लिये दूर दराज से मिलिट्री के उपकरण मंगाये जाते हैं, ऐम्बुलेंस खडी करी जाती हैं, मुख्यमंत्री या कोई अन्य मन्त्री बच्चे की शिक्षा और इलाज के लिये लाखों रुपये के अनुदान की घोषणा भी तुरन्त ही कर देते हैं। लगे हाथों यह भी पता चलता है कि बच्चे की मां बच्चे को राम-भरोसे छोड कर किसी खेत में मजदूरी कर रही थी जब बच्चा बोर-वेल में गिर गया था। दिन भर इस शो का लाईव-टेलीकास्ट चलता रहता है। बच्चा कभी-कभार बच जाता है और कभी नहीं भी। लेकिन उस के बाद आगे इस तरह की घटना को रोकने के लिये, लापरवाई से अन-ढके बोर-वेल के कारण बच्चे की मुत्यु के लिये किसे और कब सजा दी गयी यह शायद कैलाश सत्यार्थी को भी पता नहीं होगा।
  • कितने ही जीते-जागते बच्चे अपहरण हो कर अपने माता पिता से हमेशा के लिये बिछुड जाते हैं। उन्हे ना तो मृत समझा जाता है और ना ही जीवत। बहुत कुछ हाथ पाँव मारने के बाद पुलिस में रिपोर्ट तो दर्ज हो जाती है लेकिन कितने बच्चे उन ऐफ-आई-आर के रजिस्ट्रों से बाहर निकल कर घर वापिस लौटते हैं यह भी शायद कैलाश सत्यार्थी को पता नहीं होगा।

हमारे देश के माननीय सांसद बच्चों के प्रति अपराध करने वालों को मृत्युदण्ड की सजा क्यो नहीं देते – शायद इस का उत्तर भी कैलाश सत्यार्थी को पता नहीं होगा। अगर किसी सुरेन्द्र कोली जैसे अपराधी को फांसी की सजा हो भी जाये तो वह फांस पर लटकने के बजाये सजा को ही वर्षों तक अपीलों के रास्ते लटकाता रहता है। यह बालाधिकार से ऊपर मानवाधिकार के पेड का फल है जिस को जरूरत से ज्यादा ही सींचा जा रहा है।

वैसे कैलाश सत्यार्थी की बात पर वापिस लौटने पर मझे पता चला कि सत्यार्थी जी को कई विशव-व्यापी संस्थाओं से पुरस्कार और सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं। वह ऐक मशहूर आदमी हैं। फिर हमारे देश ने आज तक उन्हें कोई भारत रत्न, या कम से कम पद्मश्री जैसा कोई छोटा-मोटा सम्मान ही क्यों महीं दिया। क्या वह आज तक इस के काबिल भी नहीं थे जो हम सचिन तेन्दूलकर, सैफअली खां, और महेन्द्र सिहं धोनी वगैरा के हाथों में फौरन थमा देते हैं।

पता चला कि तो कैलाश सत्यार्थी मध्य प्रदेश में विदिशा के रहनेवाले हैं मगर वहां से तो पिछले दस वर्षों से सुषमा स्वराज का नाम या दिग्विजय सिहं का नाम ही सुनने को मिला है। क्या विदिशा के लोगों को भी यह विचार कभी नहीं आया कि विदिशा में ही इस विश्व-ख्याति चेहरे को सासंद या विधायक ही बना दें ताकि वह देश की और मानवता की सेवा करता रहै?

खैर अब तो कैलाश सत्यार्थी पर पुरस्कारों और दूसरी सुविधाओं की झडी जरूर लग जाये गी। मीडिया – जो आज तक उन के बारे में उदासीन रहा अब दिन रात उन के नाम के ढोल पीटने में लग चुका है। ऐसे कितने ही अनजान चेहरे और भी भारत में जरूर हों गे अगर मीडिया उन को ढूडने की कोशिश करे। हमें भी केवल यह जानने की इच्छा रहती है संसद के पहले दिन रेखा और सचिन के दाहिने और बायें कौन कौन संसद में बैठा था या संजय दत्त ने जेल में क्या-क्या खाया था और शारूख खां की नयी पिकचर ने पहले ही दिन कितने करोड कमाये ।

चाँद शर्मा


लद्दाख़ में चीनी सैनिकों की घुसपैठ…प्रधान मन्त्री की चुप्पी… पाकिस्तान की ओर से भारतीय सीमा पर लगातार गोला बारी…हमारे दहाडने वाले…56 ईंच का सीना रखने वाले प्रधान मन्त्री चुप्पी क्यों साधे बैठे हैं…उजडे आशियाने…कांपती जिन्दगी…हर तरफ लाचारी… …आँसू और … …… …. …. … पत्रकारों की बकबक बक बक…।

देश की इसी तरह की तसवीर मीडिया आजकल हर रोज दिखाता रहता है। इन सब बातों का कोई साकारात्मिक असर नहीं होता लेकिन देश के अन्दर निराशा-हताशा का माहौल जरूर पैदा हो जाता है। देश की जग हँसाई भी होती है। सीमाओं से दूर बसने वालों का भी मनोबल टूटता है क्योंकि उन्हें पूरी सच्चाई पता नहीं चलती। सीमाओं पर लडने वाले सिपाही अपनी ही सरकार को अविशवास से देखते हैं – जो यह सब कुछ सहते हैं उन्हें भी कोई राहत नहीं मिलती… मगर समाचार पत्र खूब बिकते हैं।

सोचने की बात है कि अगर कोई पडोसी देश हमारी सामाओं के अन्दर घुस पैठ करता है तो सरकार के पास दो रास्ते होते हैं। पहला राजनैतिक डिप्लोमेसी से समस्या का कोई हल निकाला जाये। दूसरा रास्ता ईंट का जवाब पत्थर मारना होता है।

आज के युग में सभी सभ्य देश, और सभी शक्तिशाली देश भी पहले राजनैतिक डिप्लोमेसी और सूझ-बूझ वाला रास्ता ही अपनाते हैं। इस रास्ते में समय भी लगता है और समयानुसार ‘ गिवऐण्डटेक भी करना पडता है।

दूसरा रास्ता युद्ध मार्ग का है। उस में दोनो देशों की तबाही होती है। किसी की थोडी, तो किसी की ज्यादा। लडाई के साथ महंगाई हमैशा जुडी रहती है। देश के जवान तो मरते ही हैं साथ साथ में सामान्य नागरिक भी बेघर और तबाह होते हैं। इस मार्ग को भी बहुत सोच समझ कर अपनाना पडता है। सभी तरह की तैय्यारी करनी पडती है और सही वक्त का इन्तिजार भी करना पडता है। इस युद्ध मार्ग के रास्ते पर चल कर समस्या को हल करने के लिये फिर से मुड कर राजनैतिक डिप्लोमेसी का चौक भी पार करना पडता है।

यही कारण है कि सरकार किसी भी मार्ग पर चलने से पहले बहुत कुछ सोचती है। अपनी मंशा को गुप्त रखने के लिये चुप्पी भी साधे रहती है। लेकिन मीडिया को इन सभी बातों पर सोचना नहीं पडता। अगर मीडिया वाले सोचने बैठें गे तो सनसनी फैलाने का मौका हाथ से निकल जाये गा। वह सरकार और देश को भाड में झोंकने के लिये तत्पर रहते हैं क्योंकि कहीं समाचार बासी होगये तो फिर बिकें गे नहीं।

आज कल जिन उजडते घरों और सिसकती जिन्दगियों को टीवी पर दिखाया जाता है वह सीमा के साथ सटे हुये गाँवों की तसवीरें हैं। घरों और खेतों के सामने ही सीमा की बाड़ भी देखी जा सकती है। जब सीमा पार से अचानक गोलीबारी होती है तो वहाँ फूल नहीं बरसते। मौत की गोलियां बरसती हैं जिन के फलस्वरूप लोगों का घायल होना, पशुओं का मरना, घरों का तबाह होना और लोगों का बेघर होना सभी कुछ स्वाभाविक है। सिस्कते रोते-पीटते लोगों को दिखा कर मीडिया कोई नयी खबर नहीं दे रहा केवल निराश और हताशा दिखा कर सरकार को आवेश में कोई निर्णय लेने की तरफ धकेल रहा है जिस का परिणाम देश को कई बार बाद में पछता कर भी चुकाना पड सकता है।

मीडिया की जिम्मेदारी है कि निष्पक्ष तरीके और संयम की भाषा में समाचारों को दिखायें। भडकाने और उकसाने के बदले लोगों को अपना मनोबल बनाये रखने का हौसला दें। लोगों को सलाह दें कि किस तरह से वह अपनी मदद स्वयं कर के सुरक्षित रहैं गे या युद्ध-स्थल से दूर किसी दूसरे सुरक्षित स्थान पर समय रहते चले जायें। अगर वह अफरा-तफरी में घरों से भागें गे तो अपने ही लोग, स्शस्त्र सैनाओं के लिये रोड ब्लाक दूर करने की ऐक अन्य बाधा पैदा कर दें गे जिसे टाला जा सकता है।

अगर रिहायशी इलाके सीमा के निकट हैं जहां गोलाबारी या जवाबी गोलाबारी होनी है तो उस के साथ जुडी तकलीफों का आना टाला नहीं जा सकता। रोते-पीटते, घायल बेघर लोगों को दिखाना समस्या का समाधान नहीं कर सकता। अपने देश का मजाक जरूर बनाया जा सकता है। शत्रु-सैना का मनोबल बढाया जा सकता है और अपने सैनिकों का मनोबल गिराया जा सकता है।

अब यह सोच कर देखिये कि हमारा मीडिया देश हित में प्रचार कर रहा है या देश द्रोह कर के सनसनी बेच कर पैसा कमा रहा है। पत्रकारिता के अन्दर अगर देश भक्ति की मात्रा नहीं है तो ऐसी पत्रकारिता पर प्रतिबन्ध लगना देश हित में है। पत्रकारों की शिक्षा दीक्षा में देश भक्ति और देश के हितों का ख्याल अगर नहीं रखा जाता और मीडिया के बक-बक करने पर अगर लगाम नहीं डाली जाती तो ऐसी स्वतन्त्रता केवल ऐक कलंक मात्र है।

चाँद शर्मा

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